All Jharkhand Competitive Exam JSSC, JPSC, Current Affairs, SSC CGL, K-12, NEET-Medical (Botany+Zoology), CSIR-NET(Life Science)

SIMOTI CLASSES

Education Marks Proper Humanity

SIMOTI CLASSES

Education Marks Proper Humanity

SIMOTI CLASSES

Education Marks Proper Humanity

SIMOTI CLASSES

Education Marks Proper Humanity

SIMOTI CLASSES

Education Marks Proper Humanity

Wednesday, May 12, 2021

Nagvanshi Governance System - JPSC/JSSC

Nagvanshi Governance System

In the first century (64 AD), the Munda monarchy (kingship) was transferred to the Nagvanshis. The first king of the Nagavanshi Phanimukut Rai did not abolish the Parha system nor made any changes, but tried to expand it. 


Nagvanshi Governance System

Historical Background:

  • Phanimukut  Rai (ruled from 83 AD to 162 AD) was then adopted by Madra Munda, and his successors were called Nagvanshi. 

  • The term Naga, Nagavansh, Pundarika, and Pundra denotes the tribal clan that was centered around the Chotanagpur region which is now a part of Bihar, Jharkhand, and Bengal. 

  • Pundarika Naga was the father of the famed Phanimukut Rai. Pundarika Naga (the serpent) could assume the human form but like the 'churail'= spirit of the woman who died at childbirth, who can not change their heel from back to front, could not change the forked tongue. Pundarika Naga was thus either a symbol or spirit and not a snake or human being. Snake or any other animal, other than a human being can not learn scriptures or magic.

  • Pithoria was the capital of Chotanagpur's Nagvanshi dynasty founder Phanimukut Rai. Before this dynasty, tribal ruler Maharaja Madra Munda had founded his capital here around 500 BC.

  • Khukragarh (Bero block of Ranchi), excavation of coins and pottery proved that 18th Nagavanshi ruler Bhim Karn founded his capital in Khukragarh.

In the era of Nagvanshas, the previous tax system, land system, and government system continued to like all Mundas. There were no changes in this system from the 1st century to the 16th century But the first effective interruption in this tradition began from the Mughal invasion period i.e. 1585 AD.


Mughal Invasion and Tax System:

  • The Mughal army began to keep an eye on the kings here at Chotanagpur and later it gradually assumed a regular form, which came to be known as 'Malgujari'

  • The practice of collective taxes/goods in the Nagvanshi period was not from the common ryots. Therefore, it was difficult for the Nagvanshi kings to give the Mughal rulers the goods of the entire kingdom.

  • Maharaja Durjan Shal of Chota Nagpur Khas was imprisoned in 1616 AD and was kept by Jahangir for 12 years in the Gwalior fort. 


  • The tax of the Nagvanshi kings went increasing. But there was no provision for taxing its subjects. Due to the constantly increasing tax volume, the Nagavanshi kings changed their ancient system and started collecting taxes.

  • The Nagvanshi kings called the principal standards of the Parha as Bhumihar and ordered to recover the goods. Later the kings kept their separate vassals (bondsman) and authorized them to collect the goods. This made the situation of Bhumihars even more pathetic.

  • The vassals used to collect tax, but it was not given regularly. It was given only when a Mughal emperor sought it. This irregular tax system was called 'Nazrana' or 'Offerings'.


British Invasion:

  • The arrival of the British came after the Mughals found Diwani in 1765. As soon as they arrived, these people placed the area under Fort William under the system of Patna Council.

  • When no regular tax was received from this area till 1773 AD, then S.G. Hittley was appointed the first collector from Chota Nagpur Khas. But this too was not successful in tax collection. 

  • The British adopted many other methods of collecting taxes, but they did not achieve complete success.

  • In 1793 AD, the Raja-Maharajas were made zamindars on the pretext of permanent settlement for regular tax collection. 

  • Jagirdari system changed into Zamindari system. This was an important change. with this system, the rule of the Mundas and Nagavansh, which had been in existence since ancient times came to an end, and the British Raj system came into force.

  • The King or the Maharajas remained a medium to collect taxes for the British, after which the law and order of the British began. 

  • New laws & regulations started coming in, in which the King-Maharajas, Munda-Manak, Padha-Panchayat, etc. merged here. Along with the whole country, Chota Nagpur also came under the British and the rule of Nagavanshi kings ended.


Share:

Tuesday, May 11, 2021

Padha Panchayat Shasan Vyavastha (पड़हा पंचायत शासन व्यवस्था)

Padha Panchayat Shasan Vyavastha

➧ यह उराँव जनजाति के परंपरागत शासन व्यवस्था है। 

 झारखंड में उराँव जनजाति का प्रवेश 13वीं सदी में मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियारुद्दीन खिलजी के साथ हुआ था। 

पड़हा पंचायत शासन व्यवस्था

➧ उराँव ने मुंडा शासन व्यवस्था को ही अपने क्षेत्र में लागू किया, जिसे पड़हा शासन व्यवस्था के नाम से जाना जाता है उराँव जनजाति द्वारा खेती के लिए बनाई गई उपयुक्त भूमि भुईंहरी कहलाती थी तथा इस गांव का मालिक भुईंहर कहा जाता था

➧ उराँव में पारम्परिक शासन व्यवस्था के निर्धारण हेतु पहले दीवान होते थे, जो धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों को देखते थे बाद में पहान के सहयोग हेतु मह्तो का पद बना। इस तरह आरंभ में पहान और महतो गांवों  के अनुभवी लोगों के माध्यम से पंच-पद्धति द्वारा ग्रामीण व्यवस्था का संचालन करते थे

➧ उराँव में कहावत है - 'पाहन गांव बनाता है, महतो गांव चलाता है' 

➧ पड़हा शासन व्यवस्था का स्वरूप इस प्रकार होता है:-

➧ ग्राम स्तर पर :- उराँव के गांवों  में 1 ग्राम पंचायत का गठन किया जाता है और इस ग्राम पंचायत के संचालन हेतु निम्न अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है:-

(i) महतो :- भुईहर गांवों में धर्मेश (सूर्य देवता) के बाद सबसे बड़ी शक्ति का स्रोत ग्राम पंचायत थी, जिसका प्रधान महतो कहलाता था। यह गांवों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का रक्षक था

➧ अखरा, सासन आदि के सुरक्षा की जिम्मेदारी इसी पर थी। महतो गांव के सभी प्रशासनिक कार्य करता था, इसलिए इससे स्वतंत्र प्रधान कहा गया

(ii) पहान :- यह गांवों में धार्मिक-अनुष्ठान, पर्व-त्यौहार, शादी-विवाह आदि का कार्य कराते थे तथा इसके बदले उन्हें कर मुक्त जमीन दी जाती थी, जिसे पहनाई भूमि कहते थे

➧ यह पद हमेशा किसी शादी-शुदा व्यक्ति को ही दिया जाता था

(iii) मांझी :- महतो की मदद के लिए इनकी नियुक्ति की जाती थी यह महतो के पंचायती आदेशों को लोगों तक पहुंचाने का कार्य करता था 

(iv) बैगा :- यह पहान का सहयोगी है तथा इसका मुख्य कार्य ग्रामीण देवता की पूजा कर उसे शांत कराना हैइसे वैद्य भी कहा जाता था

➧ पड़हा स्तर पर :- उराँवों में कई गांव को मिलाकर (5, 7, 12, 21 या 22) एक अन्तग्रामीण पंचायत का गठन किया जाता था, जिसे पड़हा पंचायत कहते थे

➧ यह पंचायत दो या दो से अधिक गांवों  के बीच के विवादों का निपटारा करता था तथा यह पंचायत निम्न, मध्य और उच्च तीन श्रेणी में विभाजित था  

➧ पहले निम्न पंचायत में किसी विवाद को प्रस्तुत किया जाता, यहां निर्णय न हो तो मध्य पंचायत में विवाद को भेजा जाता था और यहां भी निपटारा न हो तो उच्च पंचायत में लोग अपील करते थे

➧ पंचायत की कार्यवाही में पुरुष और महिला दोनों भाग लेते थे यह उराँवों के मुख्य प्रशासनिक इकाई थी

➧ पड़हा स्तर के मुख्य अधिकारी निम्न थे :-

(a) पड़हा राजा :- यह पड़हा पंचायत का प्रमुख होता है तथा उन मामलों का निपटारा करता है, जो महतो द्वारा नहीं किया जा सकता या फिर महतो ने उस मामले को पड़हा राजा के पास स्थानांतरित कर दिया हो

(b) पड़हा दीवान :- पड़हा पंचायत में यह प्रमुख न्यायिक अधिकारी होता है, जो सुप्रीम कोर्ट की तरह कार्य करता है। 

➧ यह सभी पड़हा राजाओं के ऊपर होता है तथा उनके बीच समन्वय स्थापित करता है, जिस मुद्दे पर पड़हा राजा निर्णय नहीं ले पाते, उससे पड़हा दीवान के पास स्थानांतरित कर दिया जाता था

➧ उराँवों की परंपरागत शासन व्यवस्था से जुड़े अधिकारी में कर लेने का प्रचलन नहीं था प्रशासनिक दायित्व निभाने वाले अधिकारियों को इसके बदले कर मुक्त विशेष भूमि प्रदान की जाती थी जैसे :-

(1) पड़हा राजा को दी गई मंझियास भूमि कहलाती थी

(2) पाहन को दी गई भूमि पहनाई भूमि कहलाती थी 

(3) महतो को दी जाने वाली भूमि महतोई  भूमि कहलाती थी 

(4) पहान के सहायता हेतु दी गई भूमि पनभरा भूमि कहलाती थी 

उराँवों की पंचायत की बैठक में महिलाएं भी भाग लेती थी, जबकि मुंडा की पंचायत बैठक में महिलाएं शामिल नहीं की जाती थी

                                                                                                 👉Next Page:मुंडा मानकी शासन व्यवस्था
                                                                                                                                                                                                                                                                       
   

  

Share:

Monday, May 10, 2021

Tamar Vidroh (1782-1821) तमाड़ विद्रोह(1782-21)

Tamar Vidroh (1782-1821)

➧ इस विद्रोह का प्रारंभ मुंडा आदिवासियों ने अंग्रेजों द्वारा बाहरी लोगों को प्राथमिकता देने तथा नागवंशी शासकों के शोषण के विरुद्ध तमाड़ क्षेत्र में किया

➧ यह अंग्रेजों के विरुद्ध सबसे लंबा, वृहत्तम और सबसे खूनी आदिवासी विद्रोह था

➧ यह विद्रोह छ: चरणों में संचालित हुआ

तमाड़ विद्रोह(1782-21)

➧ प्रथम चरण (1782-83) 

➧ सन 1782 में रामगढ़, पंचेत तथा बीरभूम के लोग भी तमाड़ में संगठित होने लगे तथा इस विद्रोह को मजबूती प्रदान की  इसका नेतृत्व ठाकुर भोलानाथ सिंह ने किया था 

➧ नागवंशी शासकों द्वारा इस विद्रोह को दबाने का प्रयास किया गया जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप विद्रोहियों ने अधिक आक्रमक रूख अख्तियार कर लिया। 

 साथ ही इस विद्रोह को कुछ जमींदारों का भी समर्थन मिला मिलना प्रारंभ हो गया

➧ सन 1783 के अंत में अंग्रेजी अधिकारी जेम्स क्रॉफर्ड द्वारा विद्रोहियों को आत्मसमर्पण हेतु विवश किये  जाने के बाद विद्रोह अगले 5 वर्षों के लिए शांत हो गया

द्वितीय चरण (1789) 

➧ 5 वर्षों बाद 1789 में मुंडाओं ने विष्णु मानकी तथा मौजी मानकी के नेतृत्व में कर देने से इनकार कर दिया जिसके बाद यह विद्रोह पुनः प्रारंभ हो गया

➧ इस विद्रोह को दबाने हेतु कैप्टन होगन को भेजा गया जो असफल रहा 

➧ पुनः अन्य अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट कुपर को विद्रोह को शांत करने का दायित्व सौंपा गया तथा कुपर के प्रयासों के परिणाम स्वरूप विद्रोह अगले 4 वर्षों तक शांत रहा 

➧ तृतीय चरण (1794-98) 

➧ 1794 ईस्वी में यह विद्रोह पुनः प्रारंभ हो गया तथा 1796 ईस्वी में इसने व्यापक स्वरूप धारण कर लिया

➧ 1796 ईस्वी में राहे के राजा नरेंद्र शाही द्वारा अंग्रेजों का साथ दिए जाने के कारण सोनाहातू गांव में आदिवासियों द्वारा नरेंद्र शाही का विरोध किया गया

➧ यह विद्रोह तमाड़ के ठाकुर भोलानाथ सिंह के नेतृत्व में प्रारंभ हुआ था। 

➧ इसके अतिरिक्त सिल्ली के ठाकुर विश्वनाथ सिंह, विशुनपुर के ठाकुर हीरानाथ सिंह, बुंडू के ठाकुर शिवनाथ सिंह, एवं आदिवासी नेता रामशाही मुंडा ने इस विद्रोह में प्रमुखता से भाग लिया

➧ विद्रोहियों द्वारा रिश्तेदार की हत्या किए जाने के बाद राहे के राजा नरेंद्र शाही फरार हो गए

➧ 1798 ईस्वी में कैप्टन लिमंड द्वारा कई विद्रोहियों तथा कैप्टन बेन द्वारा भोलानाथ सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया जिसके परिणाम स्वरूप तमाड़ विद्रोह कमजोर पड़ गया

➧ चौथा चरण (1807-08) 

 1807 ईस्वी  में दुखन शाही के नेतृत्व में मुंडा जनजाति के लोगों ने पुनः विद्रोह प्रारम्भ कर दिया 

➧ 1808 ईस्वी में कैप्टन रफसीज के नेतृत्व में दुखन शाही को गिरफ्तार किए जाने के बाद यह विद्रोह शांत पड़ गया  

➧ पांचवा चरण (1810-12) 

➧1810 ईस्वी में नवागढ़ क्षेत्र के जागीरदार बख्तर शाह के नेतृत्व में यह विद्रोह पुनः प्रारंभ हो गया

 इस विद्रोह के दमन हेतु अंग्रेजी सरकार द्वारा लेफ्टिनेंट एच.ओडोनेल को भेजा गया जिसने 1812 ईस्वी में नवागढ़ पर हमला कर दिया। बख्तर शाह इस हमले से बचकर सरगुजा भाग गया जिसके बाद यह विद्रोह मंद पड़ गया

छठा चरण (1819-21) 

➧ 1819 ईस्वी में यह विद्रोह पुनः भड़क उठा जिसके प्रमुख नेता रुदन मुंडा तथा कुंटा मुंडा थे

➧ इसके अतिरिक्त इसमें दौलत राय मुंडा, मंगल राय मुंडा, गाजी राय मुंडा, मोची राय मुंडा, भद्रा मुंडा, झलकारी मुंडा, टेपा मानकी, चन्दन सिंह, घूंसा सरदार आदि ने भी भाग लिया

➧ तमाड़ के राजा गोविंद साही द्वारा सहायता मांगे जाने पर अंग्रेज अधिकारी ई. रफसेज ने जे. कोलविन के  साथ मिलकर विद्रोह को दबाने का प्रयास किया। इस अभियान के फलस्वरुप रुदन मुंडा और कुंटा मुंडा को  छोड़कर सभी प्रमुख विद्रोही नेता गिरफ्तार हो गये  

 जुलाई, 1820 में रुदन मुंडा तथा मार्च, 1821 कुंटा मुंडा के गिरफ्तार होने के साथ ही यह विद्रोह समाप्त हो गया


                                                                                                 👉Next Page:भूमिज विद्रोह 1832-33
Share:

Sunday, May 9, 2021

Tilka Manjhi Andolan1783-85 (तिलका आंदोलन 1783-85)

Tilka Manjhi Andolan(1783-85)

➧ तिलका आंदोलन की शुरुआत 1783 ईस्वी में तिलका मांझी और उनके समर्थकों द्वारा की गई थी 

➧ यह आंदोलन अंग्रेजों के दमन व फूट डालो की नीति के विरोध में था तथा अपने जमीन पर अधिकार प्राप्त करने हेतु किया गया 


➧ इसका मुख्य उद्देश्य था :-

(i) आदिवासी अधिकारों की रक्षा करना

(ii) अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ना 

(iii) सामंतवाद से मुक्ति प्राप्त करना 

➧ इस आंदोलन का प्रमुख केंद्र वनचरीजोर था, जो वर्तमान समय में भागलपुर के नाम से जाना जाता है

 झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में इस युद्ध का व्यापक असर पड़ा। 

 तिलकामांझी उर्फ़ जाबरा पहाड़िया ने इस आंदोलन को जन आंदोलन का स्वरूप दिया और अपने आंदोलन के प्रचार-प्रसार हेतु 'साल के पत्तों' का प्रयोग किया।

➧ इस आंदोलन के दौरान आपसी एकता को मजबूत बनाए रखने पर विशेष बल दिया गया

➧ इस विद्रोह में महिलाओं ने भी भाग लिया था

 इस विद्रोह के दौरान 13 जनवरी, 1784 को तिलका मांझी ने तीर मारकर क्लीवलैंड की हत्या कर दी

➧ क्लीवलैंड की हत्या के उपरांत अंग्रेज अधिकारी आयरकूट ने तिलका मांझी को पकड़ने हेतु व्यापक अभियान चलाया।

➧ अंग्रेजों द्वारा तिलका मांझी के खिलाफ कार्रवाई किए जाने पर तिलकामांझी ने छापामारी युद्ध (गोरिल्ला युद्ध) का प्रयोग किया।

 छापामार युद्ध की शुरुआत तिलका मांझी द्वारा सुल्तानगंज पहाड़ी से की गई थी। 

➧ संसाधनों की कमी होने के कारण तिलका मांझी कमजोर पड़ गया तथा अंग्रेजों ने उसे धोखे में पकड़ लिया।

➧ पहाड़िया सरदार जउराह ने तिलकामांझी को पकड़वाने में अंग्रेजों का सहयोग किया।

➧ 1785 ईस्वी में अंग्रेजों द्वारा तिलका मांझी को गिरफ्तार कर लिया गया

➧ तिलका मांझी को 1785 ईस्वी में भागलपुर में बरगद के पेड़ से फांसी पर लटका दिया गया

➧ इस स्थान को उनकी याद में बाबा तिलका मांझी चौक के नाम से जाना जाता है

➧ झारखंड के स्वतंत्रता सेनानियों में सर्वप्रथम शहीद होने वाले सेनानी तिलका मांझी हैं 

➧ तिलका मांझी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने वाले प्रथम आदिवासी थे तथा इनके आंदोलन में महिलाओं ने भी महत्वपूर्ण सहभागिता दर्ज की थी

➧ भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम तिलका मांझी के नाम पर रखा गया है 

👉Previous Page:सरदारी आंदोलन (1858-95)

Share:

Saturday, May 8, 2021

Sardari Andolan-1858-95 सरदारी आंदोलन (1858-95)

Sardari Andolan(1858-95)

➧ इस आंदोलन को ' मुल्की व मिल्की (मातृभूमि व जमीन) का आंदोलन' भी कहा जाता है

➧ 1931-32 के कोल विद्रोह के समय कोल सरदार असम के चाय बागानों में काम करने हेतु चले आए थे

काम करने के बाद जब वे अपने गांव लौटे तो पाया कि उनकी जमीनों को दूसरे लोगों ने हड़प लिया है तथा वे जमीन वापस करने से इंकार कर रहे थे

➧ इस हड़पे गए जमीन को वापस पाने हेतु कोल सरदारों ने लगभग 40 वर्षों तक आंदोलन किया। साथ ही बलात श्रम लागू करना तथा बिचौलियों द्वारा गैर-कानूनी ढंग से किराये में वृद्धि करना भी इस आंदोलन के कारणों में शामिल था

➧ इस आंदोलन में कोल सरदारों को उरांव व मुंडा जनजाति का भी समर्थन प्राप्त हुआ

➧ अलग-अलग उद्देश्यों के आधार पर इस आंदोलन के तीन चरण परिलक्षित होते हैं:- 

(i) प्रथम चरण भूमि आंदोलन के रूप में (1858-81 ईस्वी तक), 

(ii) द्वितीय चरण पुनर्स्थापना आंदोलन के रूप में 1881-90 ईसवी तक)

(iii) तथा तीसरा चरण राजनैतिक आंदोलन के रूप में (1890-95 ईस्वी तक) 

(i) प्रथम चरण (1858-81 ई0)

➧ आंदोलन का यह चरण अपनी हड़पी गयी भूमि को वापस पाने से संबंधित था अतः इसे भूमि आंदोलन कहा जाता है

यह आंदोलन छोटानागपुर खास से शुरू हुआ दोयसा, खुखरा, सोनपुर और वासिया इसके प्रमुख केंद्र थे

➧ इस आंदोलन का तेजी से प्रसार होने के परिणाम स्वरुप सरकार द्वारा भुईंहरी (उरांव की जमीन) काश्त के सर्वेक्षण हेतु लोकनाथ को जिम्मेदारी प्रदान की गयी 

➧ इस सर्वेक्षण के आधार पर सरकार ने भूमि की पुनः वापसी हेतु 1869 ईस्वी में छोटानागपुर टेन्यूर्स एक्ट लागु किया इस आंदोलन में पिछले 20 वर्षों में रैयतों से छीनी गई भुईंहरी व मझियास भूमि (जमींदारों की भूमि) को वापस लौटाने का प्रावधान था। 

➧ इस क़ानून को लागू करते हुए 1869-80 तक भूमि वापसी की प्रकिया संचालित रही जिससे कई गावों के रैयतों को अपनी जमीनें वापस मिल गयीं। परंतु राजहंस (राजाओं की जमीन) कोड़कर (सदनों की जमीन) व खुंटकट्टी (मुण्डाओं की जमीन) की बंदोबस्ती का प्रावधान इस कानून में नहीं होने के कारण सरदारी लोग पूर्णत: संतुष्ट नहीं हो सके। 

(ii) द्वितीय चरण(1881-90 ईस्वी)

 आंदोलन के इस चरण का मूल उद्देश्य अपने पारंपरिक मूल्यों को फिर से स्थापित करना था अतः इससे पुनर्स्थापना आंदोलन कहा जाता है 

(iii) तीसरा चरण (1890-95 ईस्वी) 

इस चरण में आंदोलन का स्वरूप राजनीतिक हो गया

 आदिवासियों ने अपनी हड़पी गयी जमीनें वापस पाने हेतु विभिन्न इसाई मिशनरियों, वकीलों आदि से बार-बार सहायता मांगी। परंतु सहायता के नाम पर इन्हें हर बार झूठा आश्वासन दिया गया। परिणामत: आदिवासी इनसे चिढ़ने लगे

➧ ब्रिटिश शासन द्वारा दिकुओं व जमींदारों का साथ देने के कारण आदिवासियों का अंग्रेजी सरकार पर भी भरोसा नहीं रहा 

➧ परिणामत: आदिवासियों ने 1892 ईस्वी मिशनरियों और ठेकेदारों को मारने का निर्णय लिया। परंतु मजबूत नेतृत्व के अभाव में वे इस कार्य में सफल नहीं हो सके

➧ बाद में बिरसा मुंडा का सफल नेतृत्व की चर्चा होने के बाद सरदारी आंदोलन का विलय बिरसा आंदोलन हमें हो गया

👉Previous Page:कोल विद्रोह (1831-1832)

                                                                                             👉Next Page:तिलका आंदोलन 1783-85

Share:

Friday, May 7, 2021

Kol Vidroh 1831-32 (कोल विद्रोह 1831-1832)

Kol Vidroh (1831-32) 

➧ कोल विद्रोह झारखंड का प्रथम संगठित तथा व्यापक जनजातीय आंदोलन था।अतः झारखंड में हुए विभिन्न जनजातीय विद्रोह में इसका विशेष स्थान है। 

कोल विद्रोह 1831-1832

 इस विद्रोह के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे। 

(i) लगान की ऊंची दरें तथा लगान नहीं चुका पाने की स्थिति में भूमि से मालिकाना हक की समाप्ति।

(ii) अंग्रेजों द्वारा अफीम की खेती हेतु आदिवासियों को प्रताड़ित किया जाना।

(iii) जमींदारों और जागीरदारों द्वारा कोलों का अमानवीय शोषण और उत्पीड़न।

(iv) दिकुओं (अंग्रेजों द्वारा नियुक्त बाहरी गैर-आदिवासी कर्मचारी), ठेकेदारों व व्यापारियों द्वारा आदिवासियों का आर्थिक शोषण।

(v)अंग्रेजों द्वारा आरोपित विभिन्न प्रकार के कर (उदाहरण स्वरूप 1824 में हड़िया पर लगाया गया 'पतचुई' नामक कर) 

(vi) विभिन्न मामलों के निपटारे हेतु आदिवासियों के परंपरागत 'पहाड़ा पंचायत व्यवस्था' के स्थान पर अंग्रेजी कानून को लागू किया जाना।

➧ इस विद्रोह के प्रारंभ से पूर्व सोनपुर परगना के सिंदराय मानकी के 12 गांवों की जमीन छीनकर सिक्खों को दे दी गई तथा सिक्खों ने सिंगराई की दो बहनों का कर अपहरण कर उनकी इज्जत लूट ली

 इसी प्रकार सिंहभूम के बंदगांव में जफर अली नामक मुसलमान ने सुर्गा मुंडा की पत्नी का अपहरण कर इसकी इज्जत लूट ली

➧ इन घटनाओं के परिणाम स्वरुप सिंदराय मानकी और सुर्गा मुंडा के नेतृत्व में 700 आदिवासियों ने उन गांवों  पर हमला कर दिया जो सिंदराय मानकी से छीन लिए गये थे

➧ इस हमले की योजना बनाने हेतु तमाड़ के लंका गांव में एक सभा का आयोजन किया गया था जिसकी व्यवस्था बंदगांव के बिंदराई मानकी ने की थी

➧ इस हमले के दौरान विद्रोहियों ने जफर अली के गांव पर हमला कर दिया तथा जफर अली व उसके 10 आदिवासियों को मार डाला

➧ यह विद्रोह 1831 ईस्वी में प्रारंभ होने के अत्यंत तीव्रता से छोटानागपुर ख़ास, पलामू, सिंहभूम और मानभूम क्षेत्र तक प्रसारित हो गया 

➧ इस विद्रोह को मुंडा,  हो,  चेरो,  खरवार आदि जनजातियों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त था  

➧ हजारीबाग में बड़ी संख्या में अंग्रेज सेना की मौजूदगी के कारण यह क्षेत्र इस विद्रोह से पूर्णत: अछूता रहा 

➧ इस विद्रोह के प्रसार हेतु प्रतिक चिन्ह के रूप में तीर का प्रयोग किया गया 

➧ इस विद्रोह के प्रमुख नेता बुधु भगत (सिली निवासी) अपने भाई, पुत्र व डेढ़ सौ (150) साथियों के साथ विद्रोह के दौरान मारे गये। बुध्दू भगत को कैप्टन इम्पे ने मारा था

➧ अंग्रेज अधिकारी कैप्टन विलिंक्सन ने रामगढ़, बनारस, बैरकपुर, दानापुर तथा गोरखपुर की अंग्रेजी सेना की सहायता से इस विद्रोह का दमन करने का प्रयास किया 

➧ विभिन्न हथियारों और सुविधाओं से लैस अंग्रेजी सेना के विरुद्ध केवल तीर-धनुष के लैस विद्रोहियों ने 2 महीने तक डटकर अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया 

➧ इस विद्रोह को दबाने में पिठौरिया के तत्कालीन राजा जगतपाल सिंह ने अंग्रेज की मदद की थे जिसके बदले में तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बैटिंग ने उन्हें ₹313प्रतिमाह आजीवन पेंशन देने की घोषणा की

➧ 1832 ईस्वी में सिंदराय मानकी तथा सुर्गा मुंडा (बंदगांव, सिंहभूम निवासी) ने आत्मसमर्पण कर दिया जिसके पश्चात विद्रोह कमजोर पड़ गया

➧ इस विद्रोह के बाद छोटानागपुर क्षेत्र में बंगाल के सामान्य कानून के स्थान पर 1833 ईस्वी का रेगुलेशन-III  लागू किया गया

➧ साथ ही जंगलमहल जिला को समाप्त कर नन-रेगुलेशन प्रान्त के रूप में संगठित किया गया इसे बाद  में दक्षिण-पश्चिमी सीमा एजेंसी' का नाम दिया गया

➧ इस क्षेत्र के प्रशासन के संचालन की जिम्मेदारी गवर्नर जनरल के एजेंट के माध्यम से की जाने की व्यवस्था की गई तथा इसका पहला एजेंट थॉमस विलिंक्सन को बनाया गया 

➧ इस विद्रोह के बाद मुंडा-मानकी शासन प्रणाली को भी वित्तीय व् न्यायिक अधिकार भी प्रदान किए  

👉Previous Page:रामगढ़ विद्रोह

                                                                              👉Next Page:सरदारी आंदोलन (1858-95)

Share:

Ramgarh Vidroh (रामगढ़ विद्रोह)

Ramgarh Vidroh

➧ हजारीबाग क्षेत्र में कंपनी को सबसे अधिक विरोध का सामना रामगढ़ राज्य की ओर से करना पड़ा।

➧ रामगढ़ का राजा मुकुंद सिंह शुरू से अंत तक अंग्रेजों का विरोध करता रहा 

➧ 25 अक्टूबर, 1772 को रामगढ़ राज्य पर दो दिशा की ओर से हमला कर दिया गया

 छोटानागपुर खास की ओर से कैप्टेन जैकब कैमक और इवांस दूसरी ओर से तेज सिंह ने मिलकर आक्रमण किया

Ramgarh Vidroh

 27-28 अक्टूबर को दोनों की सेना रामगढ़ पहुंची। रामगढ़ राजा मुकुंद सिंह को भागना पड़ा कमजोर स्थिति होने के कारण

 1774 ईस्वी में तेज सिंह को रामगढ़ का राजा घोषित किया गया

➧ मुकुंद सिंह के निष्कासन एवं तेजसिंह को राजा बनाए जाने के बाद भी वहां की स्थिति सामान्य नहीं हुईमुकुंद सिंह के अतिरिक्त उसके अनेक संबंधी भी अपनी खोई हुई शक्ति प्राप्त करने के लिए सक्रिय थे

➧ सितंबर 1774 ईसवी में तेज सिंह की मृत्यु हो गयी। इसके बाद उसका पुत्र पारसनाथ सिंह गद्दी पर बैठा

➧ मुकुंद सिंह अपने समर्थकों के साथ उस पर हमला करने की तैयारी में लगा हुआ था, परंतु अंग्रेजों के कारण उसे सफलता नहीं मिल रही थी

➧ 18 मार्च, 1778 ईस्वी को अंग्रेजी फौज ने मुकुंद सिंह की रानी सहित उसके सभी प्रमुख संबंधियों को पलामू में पकड़ लिया

➧ 1778 ईसवी के अंत तक पूरे रामगढ़ राज्य में अशांति की स्थिति बनी रही

 रामगढ़ राजा पारसनाथ सिंह बढ़ी हुई राजस्व की राशि ₹71,000 वार्षिक देने में सक्षम ना था। इसके बावजूद रामगढ़ के कलेक्टर ने राजस्व की राशि 1778 ईस्वी में ₹81,000 वार्षिक कर दी 

➧ मुकुंद सिंह के समर्थक ठाकुर रघुनाथ सिंह के नेतृत्व में विद्रोही तत्व विद्रोह पर उतारू थे रघुनाथ सिंह ने 4 परगनों पर कब्जा कर लिया वहां से पारसनाथ सिंह द्वारा नियुक्त जागीरदारों को खदेड़ दिया

➧ विद्रोहियों  के दमन के लिए कैप्टन एकरसन की बटालियन को बुलाना पड़ा। एकरसन और ले. डेनियल के संयुक्त प्रयास से रघुनाथ सिंह को उसके प्रमुख अनुयायियों के साथ बंदी बना लिया गया रघुनाथ सिंह को चटगांव भेज दिया गया

➧ रामगढ़ की सुरक्षा का जिम्मा कैप्टन क्रॉफर्ड को सौंप दिया गया

➧ अंग्रेजी कंपनी के निरंतर बढ़ते शिकंजे तथा करों में बेतहाशा वृद्धि से रामगढ़ के राजा पारसनाथ अब स्वयं अंग्रेजों के चंगुल से निकलने का उपाय सोचने लगे

➧ 1781 ईस्वी  में उसने बनारस के विद्रोही राजा चेतसिंह को सहायता प्रदान की

➧ राजा अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सालाना कर का कुछ भाग बचाकर अपने सैन्य शक्ति को मजबूत करने के अभियान में जुट गया

➧ 1781 ईस्वी के अंत तक संपूर्ण रामगढ़ में विद्रोह की आग सुलगने लगी विद्रोह की तीव्रता को देख रामगढ़ के कलेक्टर ने स्थिति को काबू में लाने के लिए सरकार से सैन्य सहायता की मांग की

➧ 1782 ईस्वी तक रामगढ़ के अनेक क्षेत्र उजड़ गये और रैयत पलायन कर गये स्थिति की भयावहता को देखते हुए उप कलेक्टर जी.डालमा ने सरकार से आग्रह किया कि रामगढ़ के राजा को राजस्व वसूली से मुक्त कर दिया जाए और राजस्व वसूली के लिए सीधा बंदोबस्त किया जाये 

➧ रामगढ़ के राजा द्वारा इस नयी व्यवस्था के पुरजोर विरोध के बावजूद डलास ने जागीरदारों के साथ खास बंदोबस्त कर राजा द्वारा उनकी जागीर को जब्त किये जाने पर रोक लगा दी। अर्थात रामगढ़ का राजा अब सिर्फ मुखौटा बन कर रह गया

➧ 1776 ईस्वी में फौजदारी तथा 1799 ईस्वी में दीवानी अदालत की स्थापना से राजा की स्थिति और भी कमजोर हो गयी 

➧ स्थिति का लाभ उठाते हुए तमाड़ के जमींदारों ने रामगढ़ राज्य पर निरंतर हमले किये। राजा पूरी तरह अंग्रेजों पर आश्रित हो गया यह स्थिति 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक बनी रही

👉Previous Page:पहाड़िया विद्रोह 1772-82

                                                                                        👉Next Page:कोल विद्रोह 1831-1832
Share:

Unordered List

Search This Blog

Powered by Blogger.

About Me

My photo
Education marks proper humanity.

Text Widget

Featured Posts

Popular Posts