All Jharkhand Competitive Exam JSSC, JPSC, Current Affairs, SSC CGL, K-12, NEET-Medical (Botany+Zoology), CSIR-NET(Life Science)

SIMOTI CLASSES

Education Marks Proper Humanity

SIMOTI CLASSES

Education Marks Proper Humanity

SIMOTI CLASSES

Education Marks Proper Humanity

SIMOTI CLASSES

Education Marks Proper Humanity

SIMOTI CLASSES

Education Marks Proper Humanity

Showing posts with label JH-HISTORY-HINDI. Show all posts
Showing posts with label JH-HISTORY-HINDI. Show all posts

Monday, February 15, 2021

Jharkhand Janjatiya Vidroh Se Sambandhit Vyakti (झारखंड जनजातीय विद्रोह से संबंद्ध व्यक्ति)

झारखंड जनजातीय विद्रोह से संबंद्ध व्यक्ति

(Jharkhand Janjatiya Vidroh Se Sambandhit Vyakti)


बिरसा मुंडा

➤बिरसा मुंडा का जन्म एक मुंडा परिवार में 15 नवंबर, 1875 को वर्तमान खूंटी जिला अंतर्गत तमाड़ थाना के उलीहातू गांव में हुआ था।  

इन्होंने उलगुलान (महान हलचल) विद्रोह का नेतृत्व किया 

इन्होंने अपने अनुयायियों को अनेक देवताओं के स्थान पर एक  देवता सिंगबोंगा की आराधना का उपदेश दिया  

1895 में इन्होंने अपने को सिंगबोंगा का दूध घोषित कर एक नए पंथ बिरसाइल की स्थापना की 

यह  धार्मिक आंदोलन आगे चलकर मुंडा जनजाति के राजनीतिक आंदोलन के रूप में परिवर्तित हो गया

1899 ईस्वी में इन्होंने ईसाई मिशनरियों तथा अंग्रेजों के विरुद्ध खूंटी, तोरपा, तमाड़, कर्रा आदि क्षेत्रों में विद्रोह भड़काया

3 फरवरी 1900 को अंग्रेजी  प्रशासन ने उन्हें पकड़ कर जेल में बंद कर दिया, जहां 9 जून 1900 को रांची जेल में हैजे से उनकी मृत्यु हो गई 

बिरसा मुंडा आज भगवान के रूप में पूजे जाते हैं 

सिद्धू-कान्हू 

इन दोनों भाइयों का जन्म एक संथाल परिवार में संथाल परगना के अंतर्गत भगनाडीह नामक ग्राम में हुआ था  

उन्होंने 1855 में ब्रिटिश सत्ता, साहूकारों, व्यापारियों और जमींदारों के खिलाफ प्रसिद्ध संथाल विद्रोह का नेतृत्व किया था

30 जून 1855 ईस्वी को अंग्रेज जनरल लॉयड के नेतृत्व में अंग्रेजों और संथालों के बीच में मुठभेड़ 

 हुआ इस मुठभेड़ में संथालों की हार हुई और सिद्धू और कान्हू को फाँसी दे  दी गयी  
 
सिद्धू को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर 1855 में पंचकठियाँ नामक स्थान पर बरगद पेड़ पर फाँसी दिया गया था।जो आज भी शहीद स्मारक के रूप में  है  

कान्हू मुर्मू को भोगनाडीह में फाँसी दे दी गयी थी  हर  साल  यहाँ 30 जून को हुल दिवस पर वीर शहीद सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू को याद किया जाता है 
 
कार्ल मार्क ने इस विद्रोह को "भारत का प्रथम जनक्रान्ति कहा था  

बुधु भगत 

➤बुद्धू भगत का जन्म एक उरांव परिवार में 17 फरवरी 1792 को रांची जिले के चांहो प्रखंड  के अंतर्गत सिलागाई  ग्राम में हुआ था 

उन्होंने ब्रिटिश शासन,उनके समर्थकों और जमींदारों के विरुद्ध 1831-32 के प्रसिद्ध कोल विद्रोह का नेतृत्व किया  

इस दौरान उन्होंने असीम वीरता, धैर्य, और साहस का परिचय दिया।

उन्होंने पिठौरिया, बुंडू, तमाड़ आदि स्थानों पर अंग्रेजो के खिलाफ घमासान लड़ाईयां लड़ी 

➤कप्तान इम्पे के नेतृत्व में आए सैनिकों के खिलाफ लड़ते हुए वे 14 फरवरी 1832 को मातृभूमि की बलिवेदी पर शहीद हो गए 

➤बुधु भगत झारखण्ड के प्रथम आंदोलनकारी थे, जिनके सिर के लिए अंग्रेज सरकार ने 1000/- रूपये के पुरस्कार की घोषणा की थी

तिलकामांझी

तिलका मांझी का जन्म एक संथाल परिवार में 11 फरवरी 1750 ईस्वी को सुल्तानगंज थाने के तिलकपुर गांव में हुआ था

1771 ईस्वी से 1784 ईस्वी तक ये अंग्रेजों के शासन के विरुद्ध संघर्षरत रहे 

उन्होंने कर वसूली के विरोध में विद्रोह का नेतृत्व किया

इस दौरान इन्होंने ब्रिटिश दमन का कड़ा प्रतिरोध करते हुए 13 जनवरी 1784 को तीर चलाकर क्लीवलैंड की हत्या कर दी

संसाधनों की कमी के कारण इन्हें अंग्रेजी सेना द्वारा पकड़ लिया गया और भागलपुर में एक बरगद पेड़ से लटकाकर 1785 ईस्वी में उन्हें फांसी दे दी गयी

अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने वाले ये पहले आदिवासी थे, इसलिए इन्हें आदि विद्रोह भी कहा जाता है 


रानी सर्वेश्वरी

संथाल परगना जिला के महेशपुर राज की रानी सर्वेश्वरी ने पहाड़िया सरदारों के सहयोग से कंपनी शासन के विरुद्ध 1782-82 ईस्वी में विद्रोह किया 

यह विद्रोह इनकी जमीन को दामिन-ए-कोह बनाये जाने के विरोध में था, लेकिन इन्हें इसमें सफलता  नहीं मिली

इनकी जमीन को छीनकर दामिन-ए-कोह में शामिल कर लिया गया और उसे सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया गया 

इन्होंने अपनी जिंदगी के आखिरी दिन भागलपुर जेल में बिताए और वहीं पर 6 मई, 1807 ई0 में इनकी मृत्यु हो गयी 

रघुनाथ महतो 

रघुनाथ महतो का जन्म वर्तमान सरायकेला खरसावां जिले में नीलडीह प्रखंड में घुटियाडीह गांव में हुआ था 

इन्होंने चुआर विद्रोह का प्रथम दौर का नेतृत्व किया था 

जमीन और घर की बेदखली के कारण ये विद्रोही बन गये  

➤इन्होने 1769 ई0 में 'अपना गांव अपना राज, दूर भगाओ विदेशी राज' का नारा दिया था 

इन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध छापामार पद्धति से विद्रोही अभियान चलाया

1778 ई0 में लोटा गांव के समीप एक सभा के दौरान अंग्रेज सैनिकों की गोलीबारी में मारे गये 

तेलंगा खड़िया 

तेलंगा खड़िया का जन्म 1806 ईसवी में मुरगु में हुआ था, मुरगु नागफेनी के समीप कोयल नदी के समीप बसा है 

सन 1850-60 के आस-पास तेलंगा खड़िया के नेतृत्व में जमींदारों, महाजनों तथा अंग्रेजी राज्य के खिलाफ जुझारू आंदोलन हुआ

➤यह आंदोलन मूलत: जमीन वापसी और जमीन पर झारखंडी समुदाय के परंपरागत हक़ की बहाली के लिए था 

➤23 अप्रैल, 1880 को जब तेलंगा अपने साथियों के साथ एक बैठक में व्यस्त थे, उसी वक्त अंग्रेजों के  दलाल बोधन सिंह ने उन्हें पीछे से गोली मार दी

जतरा भगत 

टाना भगत आंदोलन के प्रणेता जतरा भगत का जन्म 2 अक्टूबर 1888 ई0 में गुमला जिला अंतर्गत बिशुनपुर प्रखंड के चिंगरी नामक गांव में एक साधारण उरांव परिवार में हुआ था

➤1914 में इन्होंने टाना भगत आंदोलन चलाया जो एक प्रकार का संस्कृतिकरण आंदोलन था

जतरा भगत ने उरांव लोगों के बीच मंदिरा पान न करने, मांस न खाने, जीव हत्या नहीं करने, यज्ञोपवीत   धारण करने, अपने-अपने घरों के आंगन में तुलसी चौरा स्थापित करने, भूत-प्रेत का अस्तित्व ना मानने, गो- सेवा करने, सभी से प्रेम करने, बैठ-बेगारी प्रथा समाप्त करने तथा अंग्रेजों के आदेशों को ना मानने, खेतों में गुरुवार को हल चलाना बंद करने का उपदेश दिया 

1916 में जतरा भगत को गिरफ्तार कर रांची जेल भेज दिया गया। 1917 ई0 में जेल से रिहा होने के पश्चात 2 माह के भीतर ही इनकी मृत्यु हो गयी  

भागीरथ मांझी

भागीरथ मांझी एक महान जनजातीय नेता थे

यह खरवार जाति से थे 

इनका जन्म गोड्डा जिले के तलडीह नामक गांव में हुआ था

1874 ई0 के खरवार आंदोलन का उन्होंने नेतृत्व किया

इन्होंने स्वयं को राजा घोषित किया और जनता से अपील किया कि वे अंग्रेजों और महाजनों को लगान न देकर इन्हें दे 

1879 में इनकी मृत्यु हो गयी  लोग इन्हें श्रद्धावश बाबाजी कहते थे 

Share:

Tuesday, February 2, 2021

Jharkhand Ke Raj Kile Aur Raj Prasad (झारखंड के राज किले /राज प्रसाद)

झारखंड के राज किले /राज प्रसाद

(Jharkhand Ke Raj Kile Aur Raj Prasad)



पलामू किला (लातेहार)

यह किला बेतला नेशनल पार्क से 5 किलोमीटर दूर औरंगा नदी के तट पर अवस्थित है

यहां दो किले हैं, जिन्हें पुराना किला एवं  नये किले  के नाम से जाना जाता है

➤नये  किले का निर्माण चेरो राजा मेदिनी राय ने कराया था

मेदनी राय मुगल शासक औररंगजेब का समकालीन था

नये  किले का नागपुरी दरवाजा अपने आकर्षक शैली के कारण प्रसिद्ध है दरवाजे की ऊंचाई 40 फीट तथा चौड़ाई 15 फीट है

किले के भीतरी भाग में चार दो मंजिली इमारतों के भग्नावेश और तीन गुंबदों से युक्त एक मस्जिद भी है इस  मस्जिद का निर्माण 1661 ईस्वी में  दाऊद खान ने करवाया था 

पुराने किले का निर्माण चेरवंशी  शासक प्रताप राय ने करवाया था 


विश्रामपुर किला (पलामू) 

➤यह किला चेरो राजवंश के संबंधी विश्रामपुर के तड़वन राजा द्वारा बनवाया गया था 

किले के निकट एक मंदिर भी है मंदिर और किले के निर्माण में लगभग 9 वर्षों का समय लगा

रोहिलो का किला (पलामू)

यह किला जलपा के पास अलीनगर में अवस्थित है

इस किले का निर्माण रोहिला  सरदार मुजफ्फर खा ने करवाया था

यह त्रिभुजाकार है 

चैनपुर का किला (पलामू) 

➤यह किला दीवान पूरणमल के वंशधरों  द्वारा बनवाया गया था

मेदनीनगर में कोयल नदी के तट पर उन लोगों द्वारा एक अन्य स्मारक भी बनवाया गया जिसका नाम चैनपुर बंगला है

कुंदा का किला (चतरा)

यह किला चेरों का था, जो चतरा जिले के कुंदा नामक स्थान पर अवस्थित है। अब यह खंडहर हो चुका है

इस किले की मीनारें मुगल शैली में निर्मित हैं 

किले के प्रांगण में एक कुआं है, जहां सुरंग नुमा रास्ता था 

तिलमी का किला (खूंटी)

यह किला खूंटी जिले के कर्रा प्रखंड के तिलमी गांव में अवस्थित है 

इस किले का निर्माण 1737 ईस्वी में अकबर ठाकुर द्वारा करवाया गया पालकोट था  

पालकोट का राजभवन (गुमला)

नागवंशी शासक यदुनाथ शाह ने पालकोट को अपनी राजधानी बनाई थी । यहीं पर उसने इस राज भवन का निर्माण कराया था

यहां उन्होंने अनेक राज भवन एवं मंदिर बनवाए

यहां गुमला जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर की दूरी पर NH-23 (गुमला-सिमडेगा) मार्ग पर है

नागफेनी का राजमहल (गुमला) 

गुमला के सिसई प्रखंड में नागफेनी नामक गांव में राजप्रसाद की अनेक टूटी हुई दीवारें मिली है

पुरातात्विक दृष्टि से इनकी तिथि 1704 ईस्वी आंकी गई है

इन दीवारों पर एक आलेख भी है पत्थर पर एक राजा और उनकी सात रानियों तथा एक कुत्ते का चित्र है

इसे नागों का शहर भी कहा जाता है

रामगढ़ का किला (रामगढ़)

इस किले का निर्माण सबल राय ने करवाया था

इस किले पर मुगल शैली की स्पष्ट झलक दिखाई देती है

बादाम का किला (हजारीबाग)

इसका निर्माण रामगढ़ का राजा हेमंत सिंह ने करवाया था 

1642 ईस्वी में राजा द्वारा यहां एक शिव मंदिर भी बनवाया गया था 

इसके अवशेष यहां आज भी विद्यमान हैं 

केसानगढ़ का किला (पश्चिमी सिंहभूम)

यह किला चाईबासा से दक्षिण-पूर्व केसानगढ़ में अवस्थित था 

वर्तमान में यहां किले का एक टीला है

जगन्नाथ का किला (पश्चिमी सिंहभूम)

➤यह  किला पश्चिमी सिंहभूम में स्थित जगन्नाथपुर में है  

इस किले का निर्माण पर पोड़ाहाट वंश के राजा जगन्नाथ सिंह ने करवाया था 

जैतगढ़ का किला (पश्चिमी सिंहभूम)

इस किले का निर्माण वैतरणी नदी के तट पर जैतगढ़ में पोड़ाहाट राजा अर्जुन सिंह ने करवाया था

पदमा का किला (हजारीबाग) 

पदमा महाराजा का किला हजारीबाग जिले की पदमा नामक स्थान पर NH-33 के किनारे अवस्थित है

अब इस किले को सरकार ने पुलिस प्रशिक्षण केंद्र बना दिया है 

दोईसागड़ (गुमला)

दोईसागड़ (नवरत्नगढ़) गुमला जिले के नगर ग्राम के निकट स्थित है

आज से लगभग पौने 400 वर्ष पूर्व यहां नागवंशी राजाओं की राजधानी थी

इतिहासकारों के अनुसार दोईसागड़ में एक पांच मंजिला महल था

प्रत्येक मंजिला पर नौ-नौ  कमरे थे राँची  गज़ेटियर भी  इसकी पुष्टि करता है, लेकिन दंतकथा है कि यह नौ तल्ला था जिसमें से 9 तल्ले  जमीन में धंस गए हैं 

खजाना घर इस महल का विशेष आकर्षण है 

➤दांतेदार परकोटों से घिरा यह महल कंगूरा शैली में है  

चक्रधरपुर की राजबाड़ी (पश्चिमी सिंहभूम)

इसका निर्माण अर्जुन सिंह के पुत्र नरपति सिंह ने 1910-20 की ईस्वी में करवाया था

यहां का राजमहल ईटों का बना है राजा की पुत्री शंशाक मंजरी ने इसे बेच दिया 

रातू महाराजा का किला (रांची)

नागवंशी राजाओं का यह किला रातू में अवस्थित है इसकी विशालता दर्शनीय है  

झरियागढ़ महल (धनबाद)

झरिया के राजाओं की प्रारंभिक राजधानी झरियागढ़ में थी, यहां इस महल का निर्माण हुआ  बाद में इसकी राजधानी कतरासगढ़ स्थानांतरित हो गई थी यहां पर भी अनेक महलों  के अवशेष हैं

Share:

Thursday, January 21, 2021

Prachin kal me Jharkhand (प्राचीन काल में झारखंड)

Prachin Kal Me Jharkhand


प्राचीन काल को चार भागों में बांटा गया है 


1) मौर्य काल

➤मगध से दक्षिण भारत की ओर जाने वाला व्यापारिक मार्ग झारखंड से होकर जाता था

 अत: मौर्यकालीन झारखंड का अपना राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक महत्व था

कौटिल्य का अर्थशास्त्र 

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इस क्षेत्र को कुकुट/कुकुटदेश नाम से इंगित किया गया है

कौटिल्य के अनुसार कुकुटदेश में गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली स्थापित थी 

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने आटविक  नामक एक पदाधिकारी की नियुक्ति की थी 

जिसका उद्देश्य जनजातियों का नियंत्रण, मगध साम्राज्य हेतु इनका उपयोग तथा शत्रुओ  से इनके गठबंधन को रोकना था

इंद्रनावक नदियों की चर्चा करते हुए कौटिल्य ने लिखा है कि इंद्रनावक की नदियों से हीरे प्राप्त किये जाते थे। 

➤इन्द्रनवाक संभवत: ईब और शंख नदियों का इलाका था 

अशोक

अशोक के 13वें शिलालेख में समीपवर्ती राज्यों की सूची मिलती है, जिसमें से एक आटविक/आटव/आटवी  प्रदेश (बुंदेलखंड से उड़ीसा के समुद्र तट तक विस्तृत) भी था और झारखंड क्षेत्र इस प्रदेश में शामिल था

अशोक का झारखंड की जनजातियों पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण था

अशोक के पृथक कलिंग शिलालेख-II में वर्णित है कि - 'इस क्षेत्र को अविजित जनजातियों को मेरे धम्म  का आचरण करना चाहिए, ताकि वे लोक परलोक प्राप्त कर सके

अशोक ने झारखंड में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु रक्षित नामक अधिकारी को भेजा था 

2) मौर्योत्तर काल

मौर्योत्तर काल में विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत में अपने-अपने राज्य स्थापित किए 

इसके अलावा भारत का विदेशों से व्यापारिक संबंध भी स्थापित हुआ जिसके प्रभाव झारखंड में भी दिखाई देते हैं  

सिंहभूम 

➤सिंहभूम से रोमन साम्राज्य के सिक्के प्राप्त हुए हैं ,जिससे झारखंड के वैदेशिक संबंधों की पुष्टि होती है  

चाईबासा

चाईबासा से इंडो-सीथियन सिक्के प्राप्त हुए हैं   

रांची से कुषाणकालीन सिक्के प्राप्त हुए हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र कनिष्ठ के प्रभाव में था 

3) गुप्त काल

गुप्त काल में अभूतपूर्व सांस्कृतिक विकास हुआ अतः इस काल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है 

हजारीबाग के मदुही पहाड़ से गुप्तकालीन पत्थरों को काटकर निर्मित मंदिर प्राप्त हुए हैं

झारखंड में मुंडा, पाहन, महतो तथा भंडारी प्रथा गुप्तकाल की देन माना जाता है 

समुद्रगुप्त

गुप्त वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक समुद्रगुप्त था। इसे भारत का नेपोलियन भी कहा जाता है

इसके विजयों का वर्णन प्रयाग प्रशस्ति (इलाहाबाद प्रशस्ति) में मिलता है। प्रयाग प्रशस्ति के लेखक हरीसेंण है। इन विजयों में से एक आटविक विजय भी था 

झारखंड प्रदेश इसी आटविक प्रदेश का हिस्सा था इससे स्पष्ट पता होता है कि समुद्रगुप्त के शासनकाल में झारखंड क्षेत्र उसके अधीन था

समुद्रगुप्त ने  पुन्डवर्धन को अपने राज्य में मिला लिया, जिसमें झारखंड का विस्तृत क्षेत्र शामिल था 

समुद्रगुप्त के  शासनकाल में छोटानागपुर को मुरुण्ड देश कहा गया है

समुद्रगुप्त के प्रवेश के पश्चात झारखंड क्षेत्र में बौद्ध धर्म का पतन प्रारंभ हो गया

चंद्रगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य'

चंद्रगुप्त द्वितीय का प्रभाव झारखंड में भी था 

इसके काल में चीनी यात्री फाह्यान 405 ईस्वी में भारत आया था। जिसने झारखंड क्षेत्र को कुक्कुटलाड  कहा है 

➤मुदही पहाड़ हजारीबाग जिले में है जो पत्थरों को काटकर बनाए गए चार मंदिर सतगांवा  कोडरमा मंदिरों के अवशेष (उत्तर गुप्त काल से संबंधित) हैं पिठोरिया  रांची पहाड़ी पर स्थित कुआं तीनों गुप्तकालीन पुरातात्विक अवशेष हैं 

4) गुप्तोत्तर काल

शशांक

➤गौड़ (पश्चिम बंगाल) का शासक शशांक इस काल में एक प्रतापी शासक था

शशांक  के साम्राज्य का विस्तार संपूर्ण झारखंड, उड़ीसा तथा बंगाल तक था

शशांक  अपने विस्तृत साम्राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए दो राजधानी स्थापित की:- 

1) संथाल परगना का बड़ा बाजार 

2) दुलमी 

प्राचीन काल में शासकों में यह प्रथम शासक था जिसकी राजधानी झारखंड क्षेत्र में थी 

शशांक शैव धर्म का अनुयाई था तथा इसने झारखंड में अनेक शिव मंदिरों का निर्माण कराया

शशांक के काल का प्रसिद्ध मंदिर वेणुसागर है जो कि एक शिव मंदिर है यह मंदिर सिंहभूम और मयूरभंज की सीमा क्षेत्र पर अवस्थित कोचिंग में स्थित है

शशांक ने बौद्ध धर्म के प्रति असहिषुणता की नीति अपनाई,जिसका उल्लेख हेन्सांग ने किया है

शशांक ने झारखंड के सभी बौद्ध केंद्रों को नष्ट कर दिया। इस तरह झारखंड में बौद्ध- जैन धर्म के स्थान पर हिंदू धर्म की महत्ता स्थापित हो गई 

हर्ष वर्धन

वर्धन वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक हर्षवर्धन था 

इसके साम्राज्य में काजांगल (राजमहल) का कुछ भाग शामिल था

काजांगल (राजमहल) में ही हर्षवर्धन हेनसांग से मिला। हेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में राजमहल की चर्चा की है

अन्य तथ्य 

हर्यक वंश का शासक बिंबिसार झारखंड क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार करना चाहता था

नंद वंश के समय झारखंड मगध साम्राज्य का हिस्सा था

नंद वंश की सेना में झारखंड से हाथी की आपूर्ति की जाती थी इस सेना में जनजातीय लोग भी शामिल थे 

झारखंड में दामोदर नदी के उद्गम स्थल तक मगध की सीमा का विस्तार माना जाता है 

झारखंड में 'पलामू' में चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा निर्मित मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं

कन्नौज के राजा यशोवर्मन के विजय अभियान के दौरान मगध के राजा जीवगुप्त द्वितीय ने झारखण्ड में शरण ली थी 

13वीं सदी में उड़ीसा के राजा जयसिंह ने स्वयं को झारखंड का शासक घोषित कर दिया था

 

Share:

Friday, January 15, 2021

Chotanagpur Kashtkari Adhiniyam 1908 Part-1(छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908)

Chotanagpur Kashtkari Adhiniyam 1908 Part-1


छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908

'छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम', का प्रारूप 1903 तक तैयार हो गया था

जिसमें संशोधन एवं परिवर्तन करते हुए 11 नवंबर 1908 को छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 लागू कर दिया गया

इस अधिनियम को भारतीय परिषद अधिनियम, 1892 की धारा-5 के अधीन गवर्नर जनरल की मंजूरी से अधिनियमित किया गया
 
इस अधिनियम का ब्लू प्रिंट जॉन एच हॉफमैन ने तैयार किया था

इस अधिनियम में कुल 19 अध्याय और 271 धाराएं हैं

अध्यायों का संक्षिप्त विवरण :- 

💥अध्याय-1 में (धारा -1 से धारा-3 तक) 

➤धारा -1  संक्षिप्त नाम तथा प्रसार:-इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम 'छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम', 1908 है।
  
इसका प्रसार उत्तरी छोटानागपुर और दक्षिणी छोटानागपुर प्रमंडल में होगा । 

जिसमें वे क्षेत्र या उन क्षेत्रों के भाग भी शामिल होंगे, जिनमें उड़ीसा, बिहार नगर पालिका अधिनियम, 1922 के अधीन कोई नगरपालिका या अधिसूचित क्षेत्र समिति गठित हो या किसी छावनी के भीतर पड़ते  हो। 

➤धारा -2 निरसन:-  अनुसूची 'क' में निर्दिष्ट अधिनियमों  और अधिसूचना को छोटानागपुर प्रमंडल में निरसित किया जाता है
 
अनुसूचित 'ख'  में निर्दिष्ट अधिनियमों  को धनबाद जिले में तथा सिंहभूम में पटमदा, ईचागढ़ , और चांडिल  थानाओ में निरसित किया जाता है 

➤धारा -3 परिभाषाएं :- 

कृषि वर्ष :- वह वर्ष जो किसी स्थानीय क्षेत्र में कृषि कार्य हेतु प्रचलित हो। 

➤भुगुतबन्ध बंधक :-किसी काश्तकार  के हित का उसके काश्तकारी  से -उधार स्वरूप दिए गए धन के भुगतान को बंधक रखने हेतु इस शर्त पर अंतरण, कि उस पर के ब्याजों के साथ उधार- बंधक की कालावधि के दौरान कश्तकारी से होने वाले लाभों से वंचित समझा जाएगा

➤जोत :- रैयत  द्वारा धारित एक या अनेक भूखंड

➤कोड़कर/ कोरकर:- ऐसी बंजर भूमि या जंगली भूमि जिसे भूस्वामी के अतिरिक्त किसी कृषक द्वारा बनाई गयी हो 

भूस्वामी :- वह व्यक्ति जिसने किसी काश्तकार को अपनी जमीन दिया हो 

काश्तकार:- वह व्यक्ति जो किसी अन्य व्यक्ति के अधीन भूमि धारण करता हो तथा उसका लगान चुकाने  का दायी हो। 

काश्तकार के अंतर्गत भूधारक, रैयत तथा खुंटकट्टीदार तीनों को शामिल किया गया है  

लगान :- रैयत द्वारा धारित भूमि के उपयोग या अधिभोग के बदले अपने स्वामी को दिया जाने वाला धन या  वस्तु 

➤जंगल संपत्ति :- के अंतर्गत खड़ी फसल भी आती है

मुंडारी-खुंटकट्टीदारी कश्तकारी से अभिप्रेत है, मुंडारी-खुंटकट्टीदार का  हित 

➤भूघृति (TENURES):-भूधारक का हित इसके अंतर्गत मुंडारी-खुंटकट्टीदारी कश्तकारी नहीं आती है 

➤स्थायी भूघृति :- वंशगत भूघृति 

पुनग्रार्हय भूघृति :- वैसे भूघृति जो परिवार के नर वारिस नहीं होने पर, रैयत के निधन के बाद पुनः भूस्वामी को वापस हो जाए 

ग्राम मुखिया :- किसी ग्राम या ग्राम समूह का मुखिया। चाहे इसे मानकी,  प्रधान, माँझी  या अन्य किसी भी नाम से जाना जाता हो 

स्थायी  बंदोबस्त (परमानेंट सेटेलमेंट):- 1793 इसमें बंगाल, बिहार और उड़ीसा के संबंध में किया गया स्थायी बंदोबस्त 

डिक्री (DECREE) :- सिविल न्यायालय का आदेश

💥अध्याय-2 में कश्तकारों के वर्ग (धारा- 4 से धारा- 8 तक)

➤धारा - 4 कश्तकारों के वर्ग 

कश्तका के अंतर्गत भूधारक (TENURE HOLDERS), रैयत (RAIYAT), दर रैयत तथा मुंडारी खुंटकट्टीदार  को शामिल किया गया है

➤अधिभोगी रैयत (OCCUPANCY RAIYAT) :- वह व्यक्ति जिसे धारित भूमि पर अधिभोग का अधिकार प्राप्त हो 

➤अनधिभोगी रैयत (NON-OCCUPANCY RAIYAT) :-वह व्यक्ति जिसे धारित भूमि पर अधिभोग का अधिकार प्राप्त ना हो 

खुंटकट्टी अधिकार प्राप्त रैयत OCCUPANCY RAIYAT)

धारा - 5  भूधारक :- ऐसे व्यक्ति से है जो अपनी या दूसरे की जमीन खेती कार्य के लिए धारण किए हुए हैं एवं उसका लगान चुकाता हो

धारा -6 रैयत :- रैयत के अंतर्गत वैसे व्यक्ति शामिल है, जिन्हें खेती करने के लिए भूमि धारण करने का अधिकार प्राप्त हो

धारा -7  खुंटकट्टी अधिकारयुक्त रैयत :- वैसे रैयत जो वैसे भूमि पर अधिभोग का अधिकार रखते हों, जिसे उसके मूल प्रवर्तकों या उसकी नर परंपरा के वंशजों द्वारा जंगल में कृषि योग्य भूमि बनाई गई है, उसे खुंटकट्टी अधिकारयुक्त रैयत कहा जाता है 

धारा -8 मुंडारी-खुंटकट्टीदार :-वह मुंडारी जो जंगल भूमि के भागो को जोत में लाने के लिए भूमि का धारण करने का अधिकार अर्जित किया हो, उसे मुंडारी-खुंटकट्टीदा कहा जाता है 

Next page: छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 Part- 2

Share:

Thursday, January 14, 2021

Pragaitihasik Kal Me Jharkhand (प्रागैतिहासिक काल में झारखंड)

प्रागैतिहासिक काल में झारखंड

(Pragaitihasik Kal Me Jharkhand)



➤वह काल जिसके लिए कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है ,बल्कि पूरी तरह पुरातात्विक साक्ष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है उससे प्रागैतिहासिक इतिहासिक काल कहते हैं

प्रागैतिहासिक इतिहासिक

प्रागैतिहासिक काल को तीन भागों में विभाजित किया जाता है

1) पुरापाषाण काल 

2) मध्य पाषाण काल

3) नवपाषाण काल

1) पुरापाषाण काल:-

इसका कालक्रम 25 लाख ईस्वी पूर्व से 10 हजार ईस्वी पूर्व माना जाता है


➤इस काल में कृषि का ज्ञान नहीं था तथा पशुपालन का शुरू नहीं हुआ था

➤इस काल में आग की जानकारी हो चुकी थी,किंतु उसके उपयोग करने का ज्ञान नहीं था 
 
झारखंड में इस काल के अवशेष हजारीबाग, बोकारो ,रांची, देवघर, पश्चिमी सिंहभूम, 

पूर्वी सिंहभूम इत्यादि क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं

हजारीबाग से पाषाण कालीन मानव द्वारा निर्मित पत्थर के औजार मिले हैं

2) मध्य पाषाण काल:-

मध्य पाषाण काल का कालक्रम 10,000 ईसवी पूर्व से 4000 ईसवी पूर्व तक माना जाता है


झारखंड में इस काल के अवशेष दुमका, पलामू, धनबाद , रांची, पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम आदि क्षेत्रों से मिले हैं

3) नवपाषाण काल:-

नवपाषाण काल का कालक्रम 10,000 ईसवी पूर्व से 1,000 ईसवी पूर्व तक माना जाता है

 इस काल में कृषि की शुरुआत हो चुकी थी 

इस काल में आग के उपयोग करना प्रारंभ कर चुके थे 

झारखंड में इस काल में अवशेष रांची, लोहरदगा, पश्चिमी  सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम, आदि क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं 

छोटानागपुर प्रदेश में इस साल के 12 हस्त कुठार पाए गए हैं

नवपाषाण काल को तीन भागों में विभाजित किया गया है

1) ताम्र पाषाण काल

2) कांस्य युग 

3) लौह युग

1) ताम्र पाषाण काल:- 

➤इसका कालक्रम 4,000 ईस्वी पूर्व  से 1000 ईसवी पूर्व तक माना जाता है

➤यह काल हड़प्पा पूर्व काल, हड़प्पा काल तथा हड़प्पा पश्चात काल तीनों से संबंधित है 

पत्थर के साथ-साथ तांबे का उपयोग होने के कारण इस काल को ताम्र पाषाण काल कहा जाता है

मानव द्वारा प्रयोग की गई प्रथम धातु तांबा ही थी 

झारखंड में इस काल का केंद्र बिंदु सिंहभूम था  

इस काल में असुर,बिरजिया तथा बिरहोर जनजातियां तांबा गलाने तथा उससे संबंधित उपकरण बनाने की कला से परिचित थे 

झारखंड के कई स्थानों से तांबा की कुल्हाड़ी तथा हजारीबाग के बाहरगंडा से तांबे की 49 खानों के अवशेष प्राप्त हुए हैं 

2) कांस्य युग:-

इस युग में तांबे में टिन मिलाकर कांसा निर्मित किया जाता था तथा उससे बने उपकरणों का प्रयोग किया जाता था  

छोटानागपुर क्षेत्र के असुर (झारखंड की प्राचीनतम जनजाति) तथा बिरजिया जनजाति को कांस्य युगीन औजारों का प्रारंभकर्ता  माना जाता है 

3) लौह युग:- 

इस युग में लोहा से बने उपकरणों का प्रयोग किया जाता था।  

झारखंड के असुर तथा बिरजिया जनजाति को लौह  युग से निर्मित औजारों का प्रारम्भकर्ता  माना जाता है। 

असुर तथा बिरजिया  जनजातियों के जनजातियों ने  उत्कृस्ट लौह तकनीकी का विकास किया। 

इस युग में झारखंड का संपर्क सुदूर विदेशी राज्यों से भी था। 

झारखंड में निर्मित लोहे को इस युग में मेसोपोटामिया तक भेजा जाता था,जहां दश्मिक  में इस लोहे से तलवार का निर्माण किया जाता था। 

Share:

Wednesday, January 6, 2021

Jharkhand Ke Pramukh Lok Nritya (झारखंड के प्रमुख लोक नृत्य)

Jharkhand Ke Pramukh Lok Nritya


झारखंड के प्रमुख लोक नृत्य


छऊ नृत्य

यह झारखंड का सबसे महत्वपूर्ण लोक नृत्य है
युद्ध भूमि से संबंधित यह लोक-नृत्य शारीरिक भाव-भंगिमाओं, ओजस्वी स्वरो  तथा पगो की धीमी व तीव्र गति द्वारा संचालित होता है

इस नृत्य की दो श्रेणियां हैं

1) हातियार श्रेणी तथा 
2) काली भंग श्रेणी 

सरायकेला राज-घराने में पल्लवित हुआ, इस नृत्य का विदेश में (यूरोप में) सबसे पहले प्रदर्शन 1938 में सरायकेला के राजकुमार सुधेन्दु नारायण सिंह ने करवाया था

यह ओजपूर्ण नृत्य शैली है, जिसमें पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथाओं के मंचन के लिए पात्र तरह-तरह के मुखोटे धारण करते हैं


झारखंड की लोक शैली के नृत्यों में यह  पहला नृत्य है, जो सिर्फ दर्शकों के लिए प्रदर्शित होता है 

झारखंड के अन्य सभी लोक नृत्यों में सिर्फ भावभिव्यक्ति ही होती है। उनके साथ कोई प्रसंग या कथानक नहीं होता। 
छऊ में प्रसंग या कथानक हमेशा मौजूद रहता है
 
अन्य लोक नृत्यों के संचालन में किसी गुरु या प्रशिक्षित शिक्षक की उपस्थिति नहीं होती, किंतु छाऊ नृत्य में उस्ताद या गुरु की उपस्थिति आवश्यक होती है 

पाइका नृत्य 

यह एक ओजपूर्ण नृत्य है, जिसमें नर्तक  सैनिक वेश में नृत्य करते हैं। 
 
इसमें नर्तक  रंग-बिरंगे झिलमिलाती कलगी लगी या मोर पंख लगी पगड़ी बांधते हैं। 
यह एक प्रकार का युद्ध से संबंधित नृत्य है और 
मुंडा जनजातियों का एक प्रमुख नृत्य है। 

नटुआ नृत्य

यह  पुरुष प्रधान नृत्य है यह पाइका नृत्य का एकल रूप जैसा है।  
इसमें भी कलगी रह सकती है, परंतु यह अनिवार्य नहीं है।  


करिया झूमर नृत्य

महिला प्रधान इस नृत्य में महिलाएं अपनी सहेलियों के हाथों में हाथ डालकर घूम- घूम कर नाचती-गाती है।  

करम नृत्य 

यह नृत्य करमा पर्व के अवसर पर सामूहिक रूप से किया जाता है यह नृत्य झुककर होता है करम के दो भेद हैं :-खेमटा  और झीनसारी।  

खेमटा में गति अत्यंत धीमी किंतु अत्यंत कमनिया होती है। 
झीनसारी रात के तीसरे पहर से सुबह मुर्गे की बांग देने तक चलने वाला नृत्य है। 


जतरा
 नृत्य

यह एक सामूहिक नृत्य है इसमें स्त्री-पुरुष एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नृत्य करते हैं। 
इसमें युवक-युवतियां कभी वृत्ताकार और कभी अर्द्ध-वृत्ताकार रूप में नृत्य करते हैं। 

नचनी नृत्य 

यह एक पेशेवर नृत्य है नचनी (स्त्री) और रसिक (पुरुष नर्तक) कार्तिक पूर्णिमा के दिन विशेष रूप से इस नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। 

अंगनाई नृत्य 

यह एक धार्मिक नृत्य है, जो पूजा के अवसर पर किया जाता है। 
यह सदनों के आंगन का नृत्य है, जिसे उरांवों ने भी अपना लिया है। 
इसके प्रमुख भेदों  में शामिल है:- पहिलसाझा, अधरतिया, विहनिया, लहसुआ, उदासी,लुझकी आदि।  

मुण्डारी नृत्य 

मुंडा जनजातियों  का रंग-बिरंगी पोशाक में यह एक  सामूहिक नृत्य है।  
इस समाज के प्रमुख नृत्य है -जदुर, ओर जदुर, नीर जदुर,जापी,गेना,चीटिद,छव, करम ,खेमटा,जरगा,ओरजरगा, जतरा,पाइका, बरु,जाली  नृत्य आदि।  

कठोरवा नृत्य

यह मुखौटे  पहनकर पुरुषों द्वारा लिया जाने वाला नृत्य है।  

मागे नृत्य

यह  नृत्य मुख्य रूप से हो जनजाति में प्रचलित है
यह महिला-पुरुषों का सामूहिक नृत्य है, जो माघ मास की पूर्णिमा में किया जाता है,इसमें बजाने, नाचने और गाने वाले नाचने वालियों के मध्य घिरे होते हैं

बा नृत्य

हो जनजातियों का यह एक प्रमुख नृत्य है
सरहुल के अवसर पर इस नृत्य में स्त्री-पुरुष सम्मिलित होकर नाचते-गाते तथा बजाते हैं 
एक साथ नृत्य तथा गीत वाले इस नृत्य में पुरुषों तथा महिलाओं का अलग दल होता है

हेरो नृत्य 

इस नृत्य में धान बोने की समाप्ति के उपरांत महिला-पुरुष सम्मिलित रूप से पारंपरिक वादियों के साथ नृत्य करते हैं

जोमनमा नृत्य

नया अन्न ग्रहण करने की खुशी में मनाए जाने वाले इस नृत्य में महिला-पुरुष सामूहिक रूप से नृत्य करते हैं। इसमें मादर, नगाड़े, बनम आदि बजाए जाते हैं

दसाई नृत्य

यह दशहरे के समय का पुरुष प्रधान नृत्य है, जिसमें हाथों में छोटे-छोटे डंडे नृतक पकड़े होते हैं 
नाचने वाले घर-घर जाकर लोगों के आंगनों में नाचते हैं और हर घर से अनाज प्राप्त करते हैं

सोहराई  नृत्य

यह नृत्य पालतू पशुओं के लिए बनाए जाने वाला उत्सव में होता है
इस नृत्य में महिला चुम्मावड़ी गीत गाती है


गेना और जपिद नृत्य

इसमें महिलाएं नृत्य करती है और पुरुष वाद्य संभालते हैं 
महिलाएं जहां कतार में जुड़कर नृत्य करती हैं, वहीं पुरुष गीतों के भावनानुरूप स्वतंत्र रूप से निर्णय करते हैं

जदुर नृत्य 

यह एक महिला प्रधान नृत्य है, जो सरहुल के समय किया जाता है अन्य  ऋतु या अवसर पर यह नृत्य वर्जित है 
इस तीव्र गति वाले नृत्य में महिलाएं झूमर की तरह जुड़ी हुई नृत्य करते हुए गीत गाती है 
जिसके मध्य में पुरुष नर्तक और वादक घिरे रहते हैं 
इसमें लय- ताल तथा राग के अनुरूप वृत्ताकार में दौड़ते हुए महिलाएं नृत्य करती हैं 


टुसु नृत्य

यह नृत्य मकर संक्रांति के अवसर पर महिलाओं द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है जिसमें वे टुसु के प्रतीक चौढ़ाल  को प्रवाहित करने हेतु जाते समय करती हैं 

रास नृत्य

कार्तिक पूर्णिमा में एक या अधिक नचनी द्वारा किया जाने वाला एक मनमोहक नृत्य है,इसमें पुरुष नर्तक, वादक एवं गायक होते हैं, जिनके मध्य नर्तिकाएँ नृत्य करती हैं 

जरगा नृत्य 

यह माघ त्योहार से संबंधित नृत्य है इसमें बालाये  एक-दूसरे की कमर पकड़कर जुड़ती है और दाएं-बाएं फिर दाहिनी और बढ़ती हुई नृत्य करती है  
यह मध्य गति का नृत्य है इसमें पैरों की चाल् या पद संचालन की अपनी विशिष्टता  है 


ओर जरगा नृत्य 

यह  नृत्य जरगा नृत्य के साथ-साथ चलता है  इसमें महिलाओं का एक ही दल होता है 
तीव्र गति से ने नृत्य  करती हुई महिलाएं वृत्ताकार घूमती हैं 
इनके मध्य गायक, वादक नर्तक पुरुषों की मंडली होती हैं

फगुवा  नृत्य

यह फगुआ (फरवरी) और चैत (अप्रैल) के संधिकाल का पुरुष प्रधान नृत्य है 
फगुआ चढ़ते ही फगुआ नृत्य की तैयारी शुरू हो जाती है
इसमें एक दल गाने वालों का तो दूसरा दल लोकने (दोहराने) वालों का होता है

घोड़ा नृत्य

यह नर्तकों द्वारा बिना पैर के घोड़े की आकृति बनाकर किया जाता है विशेष, मेलों ,त्योहारों ,उत्सवों  एवं बारात के स्वागत के समय का यह नृत्य है 
इसे  मुखड़े पर बांस के पहियों से बिना पैर के घोड़े का आकार दिया जाता है
बैठने के स्थान पर नर्तक इस तरह खड़ा रहता है जैसे वह घोड़े पर सवार है 
नर्तक बाएं हाथ से घोड़े की लगाम और दाहिने हाथ से दोधारी तलवार चमकाते रहता है
मुस्कुराता हुआ युद्धरत  विजयी राजा या सेनापति की तरह सीना ताने या नर्तक नृत्य करता है
नागपुरी क्षेत्र में घोड़ा नृत्य के लिए पांडे दुर्गानाथ राय मैसूर थे

जापी नृत्य

यह शिकार से विजयी  होकर लौटने का प्रतीक नृत्य है, इसमें स्त्री-पुरुष सामूहिक रूप से निर्णय करते हैं
यह मध्य गति का नृत्य है, इसके वादक , गायक, नर्तक पुरुष और महिलाओं से घिरे रहते हैं 
इस नृत्य में महिलाएं एक-दूसरे की कमर पकड़कर जुड़ी रहती है
पुरुषों का एक दल बजाता है दूसरे दल वाले अपने लय-ताल से नाचते-गाते हैं 
महिलाएं पुरुष नायक के गीतों की अंतिम कड़ी को गाती है

राचा नृत्य

यह नृत्य खूटी के दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र में प्रचलित है 
इसे बरया खेलना या नाचना भी कहते हैं कहीं-कहीं इसे खड़िया नाच भी कहते हैं 
इसमें मादर तथा घंटी का विशेष महत्व रहता है
इस नृत्य में, पुरुष महिलाओं को आगे अपनी ओर आते देख पीछे हटते हैं 
दूसरे दौर में, पुरुष गीत गाते हुए बालाओं को नृत्य शैली से पीछे धकेलते हैं

➤धुड़िया नृत्य

सरहुल के उपरांत उरांव लोग खेत जोत लेते हैं और बीज बो देते  है। मौसम के अनुरूप इसमें जूते खेतों से धूल उड़ती है 
धूल उड़ाते हैं इससे इस काल के नृत्य  को धुड़िया  नृत्य कहते हैं 
इसे मांदर के ताल पर नाचा जाता है
Share:

Saturday, January 2, 2021

Jharkhand Ke Pramukh Mandir (झारखंड के प्रमुख मंदिर)

Jharkhand Ke Pramukh Mandir

झारखंड के प्रमुख मंदिर

छिन्नमस्तिका मंदिर (रजरप्पा)

➤यह मंदिर रामगढ़ जिला में अवस्थित है

यह दामोदर नदी और भेड़ा (भैरवी) नदी के संगम पर स्थित है

इसकी प्रसिद्ध शक्तिपीठ के रूप में है तंत्रिकों के लिए तंत्र-साधना हेतु इसे उपयुक्त स्थल माना जाता है

यहां शारदायी दुर्गा उत्सव में मां की महानवमी पूजा सबसे पहले संथाल आदिवासियों के द्वारा प्रारंभ की जाती है और इन्हीं के द्वारा प्रथम बकरे की बलि दी जाती है

इस मंदिर में देवी काली की धड़ से अलग सर वाली मूर्ति स्थापित है जिस कारण इसे छिन्नमस्तिका कहा जाता है

यह मूर्ति शक्ति के तीन रूपों-सौम्या, उग्र और काम में से उग्र रूप को प्रतिनिधित्व करती है

➤देवी की छिन्न मस्तक मानव मस्तिक की चंचलता का प्रतीक है

देवी के दाएं और बाएं डाकिनी और शाकिनी विराजमान है

देवी के पैरों के नीचे रती-कामदेव को दर्शाया गया है जो कामनाओं के दमन का प्रतीक है

➤छिन्नमस्तिका मंदिर को वन दुर्गा मंदिर भी कहा जाता है क्योंकि 1947 ईस्वी तक यह मंदिर घने वनों के बीच स्थित है

देवड़ी मंदिर (राँची)

यह मंदिर तमाड़ से 3 किलोमीटर दूर देवड़ी नामक ग्राम में स्थित है

यहां 16 भुजा देवी की मूर्ति है

देवी की मूर्ति के ऊपर शिव की मूर्ति है तथा अगल-बगल में सरस्वती, लक्ष्मी, कार्तिक और गणेश की मूर्तियां हैं

परंपरा के अनुसार इस मंदिर में सप्ताह में 6 दिन पाहन और एक दिन ब्राह्मण  पुजारी पूजा करते हैं

जगन्नाथ मंदिर (राँची)

इस  मंदिर की स्थापना 1691 नागवंशी राजा ठाकुर ऐनी शाह  के द्वारा की गई थी

यह पुरी के जगन्नाथ मंदिर की तर्ज पर यहां भी 100 फीट ऊंची मंदिर का निर्माण किया गया है

रथ यात्रा के समय यहां विशाल मेला लगता है

 यह मंदिर रांची के क्षेत्र में जगह-जगह नाथ स्थित है 

कौलेश्वरी मंदिर (चतरा)

मां कौलेश्वरी देवी का मंदिर चतरा में स्थित है

मां कौलेश्वरी देवी का मंदिर 1575 फुट की ऊंचाई वाले कलुआ पहाड़ पर स्थित है 

➤कोल्हुआ पहाड़ तीन धर्मों  हिंदू, बौद्ध और जैनों का संगम स्थल है 

यहां जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव,पार्शवनाथ आदि की प्रतिमाएं स्थापित है 

कई मंदिरों के समूह को कालेश्वरी का मंदिर कहा जाता है

यह गुफाओं का मंदिर है

यहां पशु बलि दी जाती है और मेले का आयोजन होता है

मां भद्रकाली मंदिर (इटखोरी चतरा)  

यह मन्दिर चतरा जिला में चौपारण से 16 किलोमीटर की दूरी पर इटखोरी प्रखंड के भदौली गांव में स्थित है

इस मंदिर में भद्रकाली की मूर्ति प्रतिष्ठित है

यह मूर्ति शक्ति के रूप तीन रूपों -सौम्य, उग्र व काम में से सौम्य रूप का प्रतिनिधित्व करती है

यह एक ही शिलाखंड से तराशी गई मूर्ति है, जो साढ़े चार फीट ऊंची, ढाई फीट चौड़ी और 30 मन भारी है

संभवत यह  मंदिर पालकाल में (पांचवी-छटवीं शताब्दी) स्थापित की गई थी

यह सहत्रीलिंगी शिवलिंग भी है, जिसमें एक 1008 छोटे-छोटे शिवलिंग उकेरे गए हैं

मंदिर परिसर में ही कोठेश्वरनाथ स्तूप है, जिसके चारों ओर भगवान बुद्ध की मूर्तियां अंकित है

इसके ऊपर 4 इंच लंबा, चौड़ा और गहरा गड्ढा है, जिसमें हमेशा 3 इंच पानी बना रहता है

कुंदा का किला (चतरा)

यह किला चेरों का था, जो चतरा जिले के कुंदा  नामक स्थान पर स्थित है,अब यह खंडहर हो चुका है

इस कीले की मीनारें मुगल शैली से निर्मित है

किले के प्रांगण में एक कुआं है, जहां सुरंगनुमा रास्ता था

बैद्यनाथ मंदिर(देवघर)

इस मंदिर का निर्माण गिद्दौर राजवंश के दसवें राजा पूरणमल द्वारा कराया गया था

शिव  के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक मनोकामना लिंग बैद्यनाथ धाम देवघर में स्थापित है

इस मंदिर के प्रांगण में कुल 22 मंदिर हैं

➤ये हैं - वैद्यनाथ, पार्वती, लक्ष्मीनारायण, तारा, काली, गणेश, सूर्य, सरस्वती, रामचंद्र, देवी अन्नपूर्णा, आनंद भैरव, नीलकंठ, गंगा, नरदेश्वर, राम-लक्ष्मण-सीता, जगत जननी, काल भैरव, ब्रह्म, संध्या गौरी, हनुमान, मनसा शंकर, बगुला माता काली के मंदिर

यह भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है

अकबर के सेनापति मानसिंह द्वारा यहां पर निर्मित एक मानसरोवर तालाब है

मंदिर के गर्भगृह के शिखर पर अष्टदल कमल के बीच में चंद्रकांत मणि है

यहां भगवान शिव के शिखर पर पंचशूल स्थापित है

युगल मंदिर(देवघर)

यह  मंदिर भी देवघर में है

इसे  नौलखा मंदिर के नाम से जाना जाता है इसका निर्माण में ₹900000 खर्च हुए थे

तपोवन मंदिर (देवघर)

यहां भगवान शिव का एक मंदिर है

➤यहाँ गुफाएँ हैं ,जिसमें ब्रह्मचारी लोग निवास  करते हैं

कहा जाता है कि कभी माता सीता ने यहां तपस्या की थी

बासुकीनाथ धाम (दुमका)

बासुकीनाथ धाम दुमका से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है

बैद्यनाथ धाम आने वाले प्राय: प्रत्येक तीर्थयात्री यहां आए बगैर दिन और अपनी यात्रा पूरी नहीं मानता

बासुकीनाथ की कथा समुद्र मंथन  से जुड़ी हुई है ,समुन्द्र मंथन में मंदराचल पर्वत को मथानी और बासुकीनाथ को रस्सी  बनाया गया था

बासुकिनाथ मंदिर को 150 वर्ष बताया जाता है, जिसका निर्माण बासकी तांती ने कराया था, जो हरिजन जाति का था

शिवरात्रि के दिन यहाँ  विशाल मेला लगता है

महामाया मंदिर (गुमला)

रांची-लोहरदगा-गुमला मार्ग में लोहरदगा से 14 किलोमीटर दूर गम्हरिया नामक स्थान में 1 किलोमीटर पश्चिम में हापामुनी नामक गांव में महामाया का मंदिर स्थित है

इस मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा गजघंट ने 908 ईस्वी में करवाया था

इस मंदिर में काली मां की मूर्ति स्थापित है

यह एक तांत्रिक पीठ है

इस मंदिर का प्रथम पुरोहित द्विज हरिनाथ थे

टांगीनाथ मंदिर (गुमला)

यह मंदिर में मझगांव की पहाड़ी पर स्थित है

टांगी पहाड़ पर शिवलिंग के अलावा दुर्गा,भगवती, लक्ष्मी ,गणेश, अर्धनारीश्वर, विष्णु, सूर्यदेव, हनुमान आदि की मूर्तियां हैं

➤ये मूर्तियां प्राचीन शिल्पकला के  सुंदर नमूने हैं

मुख्य मंदिर का नाम टांगीनाथ अथवा शिव मंदिर है

मंदिर के अंदर एक विशाल शिवलिंग के अलावा आठ अन्य शिवलिंग भी है

हल्दीघाटी मंदिर (गुमला)

यह मंदिर गुमला जिले के कोराम्बे नामक स्थान में स्थित है

यहां का पहला शासक कोल तेली राजा था।बाद में यहाँ रक्सेल आये 

➤यह स्थान नागवंशी राजा तथा रक्सेल के लिए हल्दी घाटी के समान माना जाता है

कोरमबे में वासुदेव राय का मंदिर है

वासुदेव राय की काले पत्थरों से निर्मित आकर्षक मूर्ति प्राचीन परंपरा का प्रतीक है

मां योगिनी का मंदिर(गोड्डा)

यह मंदिर बराकोपा पहाड़ी पर स्थित है

मान्यता है अनुसार मां-सीता का दाहिना जांघ यहां गिरा था

यहां मां की प्रतिमा के रूप में जाँघ  की आकृति का शैल अंश है 

भक्तजन यहां लाल वस्त्र चढ़ाते हैं

इस मंदिर के समस्त निर्माण खर्चों का वहन श्रीमती चारुशिला देवी ने किया था

श्री बंशीधर मंदिर (गढ़वा) :-

यह मंदिर नगर उंटारी में राजा के गढ़ के पीछे स्थित है

इस मंदिर की स्थापना 1885 में की गई थी

यहां राधा कृष्ण की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं

सूर्य मंदिर (बंडू)

रांची-टाटा मार्ग पर बुंडू के नजदीक इस मंदिर की स्थापना की गई है

यह मंदिर सूर्य के रथ की आकृति में बनाया गया है

इसका निर्माण संस्कृति-विहार, रांची नामक एक संस्था ने किया है

मंदिर की खूबसूरती के संबंध में स्थानीय साहित्यकारों ने इसे 'पत्थर पर लिखी कविता' कहा है

बेनीसागर का शिव मंदिर (पश्चिमी सिंहभूम

इस मंदिर का निर्माण काल 602 से 625 के बीच बताया जाता है

संभवत:गौड़ शासक शशांक द्वारा इस मंदिर का निर्माण हुआ था

यहां से छठी शताब्दी की 33 छोटी-बड़ी मूर्तियां मिली हैं, जिसमें हनुमान, गणेश और दुर्गा की प्रतिमाएं प्रमुख है

शिवलिंग के साथ शिलालेख भी यहां से प्राप्त हुए हैं

उग्रतारा मंदिर नगर

यह मंदिर लातेहार जिला के चंदवा प्रखंड मुख्यालय से लगभग 9 किलोमीटर दूर पर नगर गांव (मंदाकिनी पहाड़) में अवस्थित है

इस मंदिर की प्रसिद्ध एक सिद्ध तंत्रपीठ के रूप में दूर-दूर तक व्याप्त है

मंदिर में लगभग 2 किलोमीटर दूर पश्चिम की ओर पहाड़ी पर एक मजार है

यह मजार मदारशाह के मजार के नाम से प्रसिद्ध है

काली कुल की देवी उग्रतारा और श्री कुल की देवी लक्ष्मी का एक ही स्थान पर स्थापित होना इस मंदिर की मुख्य विशेषता है



Share:

Unordered List

Search This Blog

Powered by Blogger.

About Me

My photo
Education marks proper humanity.

Text Widget

Featured Posts

Popular Posts