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Saturday, November 14, 2020

हो विद्रोह (1820-21) ई0(Ho Vidroh-1820-21)


हो विद्रोह 1820-21 ई0


➤हो लोगों का निवास स्थल 'हो देशम' (हो जाति का देश) या 'कोल्हान' (कोल-स्थान) के नाम से जाना जाता था

हो देशम /कोल्हान पर मुगलों या मराठों का कभी अधिकार नहीं रहा था

यद्यपि पोरहाट के सिंह राजाओं का इन पर प्रभाव था, किंतु वे सिंह वंश के समकक्ष थे ना कि अधीनस्थ 

➤वे सिंह राजाओं को कोई  नियमित कर नहीं देते थे, केवल समय-समय पर कुछ भेंट/ उपहार दे देते थे 

➤बाह्य  नियंत्रण से दीर्घकाल तक मुक्त रहने के फलस्वरुप हो  स्वतंत्राप्रेमी और लड़ाकू स्वभाव के हो गए थे 

इसी कारण कंपनी काल में यह 'लड़ाका कोल' के नाम से प्रसिद्ध थे

➤सिंहभूम  के राजा के आग्रह पर वर्ष 1820 में पॉलिटिकल एजेंट मेजर रफसेज एक सेना के साथ हो देशम में प्रविष्ट हुआ

चाईबासा के निकट रोरो नदी के तट पर हो लोगों से हुई लड़ाई में अंग्रेजी विजय हुए 

इस दमन के बावजूद हो देशम के उत्तरी भाग के हो पोरहाट  के राजा को कर देने के लिए सहमत हुए 

दक्षिणी कोल्हान के हो लोगों ने अंग्रेजों का विरोध करना जारी रखा

हो लोगों ने सीमावर्ती राज्यों के इलाकों में उपद्रव मचाना शुरू कर दिया 

हो लोगों की इन गतिविधियों के फलस्वरुप पोरहाट राजा को पुनःमेजर रफसेज से सहायता की याचना करनी पड़ी 

परिणाम स्वरुप 1821 ईस्वी में कर्नल रिचर्ड के नेतृत्व में एक बड़ी सेना हो लोगों के विरुद्ध भेजी गई

हो लोगों ने रिचर्ड का एक महीने तक सामना किया किंतु अंतर्विरोध को निरर्थक जानकर कंपनी से संधि करना बेहतर समझा 

संधि की प्रमुख शर्तें थी

1) हो लोगों ने कंपनी की अधीनता को स्वीकार किया 

2) हो लोगों ने अपने राजाओं और जमींदारों को 8 आना (50 पैसे) प्रति हल सालाना कर देना स्वीकार किया 

इस संधि के बावजूद कोल्हान में गड़बड़ी समाप्त नहीं हुई 1831- 32 ईसवी में हो लोगों ने कोल विद्रोह में सक्रिय भाग लिया 

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Wednesday, November 11, 2020

संथाल विद्रोह 1855-56 (Santhal vidroh-1855-56)

Santhal vidroh-1855-56

➤19वीं सदी के जनजातीय विद्रोहों  में संथालों का विद्रोह (1855-56) ईस्वी सबसे जबरदस्त था,इसे 'संथाल हूल' भी कहा जाता है।  

➤'हुल' का शाब्दिक अर्थ है -विद्रोह /बगावत। 

दरअसल संथाली विद्रोह करते वक्त 'हुल- हुल' चिल्लाते थे जिसके चलते इसे 'संथाल हूल' की संज्ञा दी गई।  

इस विद्रोह का नेतृत्व चार मुर्मू बंधुओं -सिद्धू ,कान्हू, चांद और भैरव ने किया  

यह विद्रोह अंग्रेजों शासकों के खिलाफ तथा ब्रिटिश शासन के आधार स्तंभ जमींदारों एवं साहूकारों के खिलाफ था। 

इस विद्रोह को दबाने में कंपनी सरकार को अत्यधिक श्रम करना पड़ा। 

कारण:-

इस विद्रोह के कारण उस युग की परिवर्तनीय अवस्थाओं में निहित थे 

आर0 सी0  मजूमदार के शब्दों में,  'संथाल विद्रोह आर्थिक कारणों से आरंभ हुआ लेकिन शीघ्र ही उसका उद्देश्य विदेशी शासन का अंत हो गया, क्योंकि उन्होंने यह देखा कि अंग्रेज अधिकारी उनकी शिकायतों पर  तनिक भी ध्यान नहीं देते हैं

वह तो शोषकों को प्रश्रय देते हैंअतएव  ब्रिटिश शासन का अंत ही उनकी स्थिति सुधार सकता है'

संथाल विद्रोह का प्रमुख कारण अंग्रेजी उपनिवेशवाद और उसमें निहित शोषण, बंगाली एवं  पछहि महाजनों तथा साहूकारों का शोषण था 

यह विद्रोह गैर आदिवासियों को भगाने उसकी सत्ता समाप्त कर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए छेड़ा गया था 

जमींदारों की अत्यधिक मांग:-

संथाल लोग हजारीबाग और मानभूम से राजमहल पहाड़ियों के इलाके में आकर बस गए थे

धीरे-धीरे राजमहल से लेकर भागलपुर के बीच का क्षेत्र,जो दामन-ए-कोह (पर्वत का दामन /आंचल अर्थात पहाड़ों के नीचे की भूमि/ पर्वतपदीय भूमि) के नाम से जाना जाता था, संथाल बहुल क्षेत्र बन गया

सीधे-साधे मेहनतकश संथालों ने कड़ी मेहनत से जंगलों को काट कर भूमि कृषि योग्य बनाई 

➤शीघ्र ही जमींदारों ने इस भूमि के स्वामित्व का दावा कर दिया 

इन पर बहुत ज्यादा लगान  लगा दिया  

बाद के वर्षों में लगान की दरें बढ़ कर 3 गुनी अधिक हो गई  

पैतृक भूमि को छोड़कर यहां आकर बसने वाले संथालों के दुखों का दुनिया में जैसे कहीं अंत न था

जमींदारों की अत्यधिक मांग से तंग आकर संथालों  ने विद्रोह का झंडा उठा लिया 

महाजनों का ऋणी जाल:-  

मालगुजारी नगदी देनी होती थी जिस कारण संथालों का महाजनों से ऋण लेना पड़ता था जिस पर भारी ब्याज चुकाना पड़ता था जो मूल ऋण  का 50% से 500% तक  हुआ करता था 

➤संथालों  द्वारा ऋण की अदायगी नहीं किए जाने पर ये सूदखोर महाजन उनके मवेशियों को खोल  ले जाते थे तथा उनके खेत खलिहानों  पर कब्जा कर लेते थे 

इस प्रकार सूदखोर महाजनों ने ऋण- जाल का फंदा तैयार कर दिया था, जिसमें संथाल फंसते चले गए

इससे भी खराब बात यह थी कि वे उनकी स्त्रियों की इज्जत लूट लेते थे 

पुलिस व न्यायालय का पक्षपात:-

जमींदारों वह महाजनों के खिलाफ संथालों  ने पुलिस को न्यायालय की शरण लेने की कोशिश की लेकिन सब व्यर्थ साबित हुआ क्योंकि वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ही शोषण की उपकरण थी और वे जमींदारों-महाजनों का ही पक्ष लेते थे

जमींदारों, महाजनों  आदि की पुलिस व न्यायालय से मिली-भगत ने संथालों की मुश्किलों को और भी बढ़ा दिया 

स्पष्ट था कि संथालों  की पुलिस, न्यायालय- कहीं भी कोई सुनवाई न थी,अतएव वे अंग्रेजी सरकार के भी खिलाफ हो गए

तत्कालीन कारण:-

सरकार द्वारा भागलपुर से वर्तमान के बीच रेल बिछाने के काम में संथालों  से बेगारी करवाना :  संथालों की मुसीबत उस समय और बढ़ गई जब सरकार ने भागलपुर-वर्दमान  रेल परियोजना के तहत रेल बिछाने के काम में संथालों  को बड़ी संख्या में बेगार करने के लिए मजबूर किया

जिन लोगों ने ऐसा करने से इनकार किया, उन्हें कोढ़ो से पीटा गया संथालों ने इसका प्रतिहार करने का निश्चय किया  

उन्होंने रेलवे ठेकेदारों के ऊपर हमले किए और रेल परियोजना में लगे अधिकारियों व इंजीनियरों के तंबू उखाड़ दिए गए

संथाल विद्रोह का मुख्य उद्देश्य:-

➤देकुओं अर्थात दिक् (परेशान) करने वाले बाहरी लोगों को भगाना

विदेशियों का राज हमेशा के लिए खत्म करना तथा

सतयुग का राज- न्याय व धर्म का अपना राज्य (आबुआ राज्य) स्थापित करना 

परिणाम:-

संथाल विद्रोह के निम्नलिखित परिणाम हुए-- 

भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों, महाजनों व जमींदारों के मन में भय व्याप्त हो गया और उनकी लूट -खसोट कुछ दिनों के लिए थम गई 

कंपनी सरकार ने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था में व्यापक फेर-बदल और सूधार किये ,इस प्रकार नये नियमों के कारण शासक और स्थानीय लोगों में सीधा संपर्क स्थापित हुआ

एल0 एस0  एस0 ओ0 मुले ने संथालों के विद्रोह को मुठभेड़ की संज्ञा दी है

➤जबकि कार्ल मार्क ने इसे 'भारत की प्रथम जनक्रांति' माना है, जो अंग्रेज़ हुकूमत को तो नहीं उखाड़ 
सकी पर सफ़ाहोड़ आंदोलन को जन्म देने का कारण जरूर बन गई 

इस विद्रोह के दमन के बाद संथाल क्षेत्र को एक अलग नॉन रेगुलेशन जिला बनाया गया ,जिसे  संथाल परगना का नाम दिया गया 

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Sunday, November 8, 2020

मांझी परगना /संथाल शासन व्यवस्था (Manjhi Pargana/santhal shasan vyavastha)

Manjhi Pargana/Santhal Shasan Vyavastha

मांझी परगना /संथाल शासन व्यवस्था (Manjhi Pargana/santhal shasan vyavastha)

➤'संथाल' झारखंड के प्रमुख आदिवासियों में से एक हैं

वैसे तो यह झारखंड के विभिन्न भाग में है, लेकिन बहुसंख्य संथालों  का निवास स्थान संथाल परगना है

नवीनतम जनगणना के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या लगभग 24 लाख  है ,जो झारखंड के आदिवासियों में सबसे बड़ी संख्या है

➤संथालों की  पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था काफी प्रचलित है
 
अपने सामाजिक जीवन को सुरक्षित तथा संगठित रूप से चलाने के लिए प्रत्येक गांव में प्रशासकीय  एवं धार्मिक प्रधान होते हैं

जो इस प्रकार हैं

1) मांझी (प्रधान) 
2) प्रानीक 
3) गोड़ैत
4) जोग मांझी
5) जोग प्रानीक   
6) भाग्दो प्रजा 
7) लासेर टेंगोय 
8) नायके
10) देश मांझी /मोड़े मांझी 
11) परगनैत 
12) सुसारिया  
13) चौकीदार 
14) दिशोम परगना
 

1) मांझी (प्रधान)   

मांझी गांव का प्रधान होता है

यह गांव के  आंतरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार की शासन व्यवस्था हेतु गांव का प्रतिनिधित्व करता है

मांझी गांव का प्रशासनिक एवं न्यायिक मुख्य होता है, तथा उससे लगान लेने का अधिकार है

2)प्रानीक 

प्रानीक  भी गांव का एक प्रमुख सदस्य हैं

उन्हें उप -मांझी का दर्जा प्राप्त है
 
मांझी की अनुपस्थिति में प्रानीक ही  मांझी का काम देखता है

➤प्रानीक  किसी अपराध के मामले में दंड निश्चित करता है

➤दंड वही माना जाता है, जो प्रानीक  द्वारा निश्चित किया गया हो

3) गोड़ैत

गोड़ैत मांझी के सचिव के रूप में काम करता है

मांझी के कहने पर गांव में  बैठकी करने के लिए ग्रामीणों को सूचित करता है

इसके अलावा गांव के पूजा पाठ में खजांची का काम भी करता है

चंदा इकट्ठा करता है ,पर्व -त्योहारों के बारे में गांव को सूचना देता है

गोड़ैत  को पूरे गांव की जनसंख्या तथा परिवार की जानकारी रहती है

4) जोग मांझी 

जोग मांझी, मांझी का उप सचिव है

गांव के शादी-विवाह का हिसाब किताब 'जोग मांझी', के पास रहता है

➤ये  युवाओं का नेता भी है

शादी-विवाह में लड़का-लड़कियों का नेतृत्व भी करता है

शादी-विवाह के विवादों में जोग मांझी निर्णय सुनाता है

5) जोग प्रानीक

जोग प्रानीक उप जोग मांझी है 

जोग मांझी के अनुपस्थिति में जोग प्रानीक ही कार्यभार संभालता है

6) भाग्दो प्रजा

भाग्दो प्रजा गांव के कुछ प्रमुख सज्जन है, जो गांव के प्रत्येक मामले में विचार-विमर्श के लिए सभा में उपस्थित रहते हैं 

प्रत्येक टोला में एक या दो लोग हो सकते हैं

7) लासेर टेंगोय 

लासेर टेंगोय संगठनात्मक  प्रमुख होता है ,जो ग्रामीणों को बाहरी हमलों से सुरक्षा प्रदान करता है

8) नायके

नायके गांव के धार्मिक पूजा-पाठ को संपन्न करता है तथा धार्मिक अपराधों के मामलो  पर अपना फैसला सुनाता है

यह गांव के अंदर जितने भी देवी-देवता है उसका पूजा-पाठ करता है

10) देश मांझी /मोड़े मांझी 

देश मांझी /मोड़े मांझी 5 से 8 गांवों  के मांझियों को देश मांझी कहा जाता है 

यदि किसी मामला का फैसला मांझी नहीं कर सकता है, तो उस मामले को मांझी द्वारा देश मांझी के पास लाया जाता है और 5 से लेकर 8 मांझी  मिलकर मामला का फैसला करते हैं

इससे मोड़े मांझी भी कहा जाता है 

11) परगनैत

परगनैत 15 से 20 गांवों  के बीच एक परग्नत होता है

यह गांवों  के  मांझियों  का प्रधान होता है

जिस मामला को 'देश मांझी' नहीं निपटा सकते उस मामला को परगनैत के पास संबंधित गांव के मांझी द्वारा लाया जाता है

12) सुसारिया

➤सुसारिया ये  सभा को सुचारु रुप से चलाते हैं

यह पद सभी क्षेत्रों में नहीं होता है

13) चौकीदार

चौकीदार यह मांझी के आदेश से अपराधी व्यक्ति को गिरफ्तार करता है 

यह पद पारंपरिक नहीं है 


14) दिशोम परगना

कुछ क्षेत्रों में सभी परगनेतो के ऊपर एक दिशोम परगना होता है
 
जब कोई मामला परगेनोतो द्वारा नहीं निपटाया जाता है तो ऐसे मामले को देशोंम परगना  के सभा में निपटाया जाता है 

गांव को संभालने के लिए ये अपने आप में एक कैबिनेट है
 
भाग्दो प्रजा को छोड़कर शेष सभी पदाधिकारियों को गांव की ओर से जमीन मिली रहती है
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मुंडा उलगुलान /बिरसा मुंडा आंदोलन (Munda Ungulan/Birsa Munda Andolan)

Munda Ungulan/Birsa Munda Andolan

(मुंडा उलगुलान /बिरसा मुंडा आंदोलन)


मुंडा उलगुलान /बिरसा मुंडा आंदोलन-(1899-1900)ईस्वी 

➤बिरसा आंदोलन 19वीं सदी के आदिवासी आंदोलनों में सबसे अधिक संगठित और व्यापक आंदोलन में से एक था, जो वर्तमान झारखंड राज्य के रांची जिले के दक्षिणी भाग में 1899-1900 ईसवी में हुआ

इसे 'मुण्डा उलगुलान ' मुण्डा महाविद्रोह भी कहा जाता है 

➤सामूहिक भू -स्वामित्व व्यवस्था का जमींदारी  या व्यक्तिगत भू-स्वामित्व व्यवस्था में परिवर्तन के विरुद्ध इस आंदोलन का उदय हुआ और बाद में बिरसा  के धार्मिक-राजनीतिक आंदोलन के रूप में इसका चरमोत्कर्ष हुआ 

कारण 

मुण्डा उलगुलान के निम्नलिखित कारण थे 

1)  खूंटकट्टी व्यवस्था की समाप्ति और बैठ बेगारी का प्रचलन :- 19वीं सदी में उत्तरी मैदान से आने वाले व्यापारियों, जमींदारों, ठेकेदारों, साहूकारों ने मुंडा जनजाति में प्रचलित सामूहिक भू -स्वामित्व वाली भूमि व्यवस्था (खूंटकट्टी व्यवस्था) को समाप्त कर व्यक्तिगत  भू -स्वामित्व वाली भूमि व्यवस्था का प्रचलन  किया

बंधुआ मजदूरी (बेठ बेगारी) के माध्यम से (देकु )गैर आदिवासियों/बाहरी लोग का शोषण करते थे

2) मिशनरियों  का कोरा आश्वासन और उनसे मोह -भंग :-  विभिन्न मिशनरियों ने भूमि  संबंधी समस्याओं के समाधान दूर करने का लालच देकर उन्हें अपने धर्म-ईसाई धर्म में दीक्षित करना प्रारंभ कर दिया

किंतु वे  भूमि की मूल समस्या का कोई समाधान नहीं कर पाए 

3) अदालतों से निराशा :- जब मुंडा कबीले के सरदारों ने बाहरी भूस्वामियों और जबरी बेगारी  के खिलाफ अदालतों  की शरण ली तो वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी

तत्कालीन कारण

4) 1894 का  छोटानागपुर वन सुरक्षा कानून :-1894 का  छोटानागपुर वन सुरक्षा कानून बन जाने से जंगल पुत्र आदिवासी निर्वाह के सबसे प्रमुख साधन से वंचित हो गए

उन्हें भूखों मरने की नौबत आ गई

भूख से बिलबिलाते मुंडाओ को आंदोलन करने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा 

बिरसा आंदोलन का उद्देश्य 

आर्थिक उद्देश्य :-  सभी बाहरी तथा विदेशी तत्वों को बाहर निकालना विशेषकर मुंडाओ की  उनकी जमीन हथियाने वाले जमींदारों को भगाना एवं जमीन को मुंडा उनके हाथ में वापस लाना  

राजनीतिक उद्देश्य :- अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभुत्व को समाप्त करना तथा स्वतंत्र मुंडा राज की स्थापना करना  

धार्मिक उद्देश्य :- ईसाई धर्म का विरोध करना तथा ईसाई बन गए असंतुष्ट मुंडाओ को अपने धर्म में  वापस लाना 

परिणाम 

बिरसा आंदोलन स्वतंत्र मुंडा राज की स्थापना करने में विफल रहा, लेकिन 1902 में गुमला एवं 1903 में खूटी  को अनुमंडल के रूप में स्थापना तथा 1908 के छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम के द्वारा मुण्डाओं  को कुछ आराम  अवश्य मिली  

वर्ष 1908 में पारित  छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम के के द्वारा (सामूहिक काश्तकारी) अधिकारों को पुनर्स्थापित किया गया, बंधुआ मजदूर (बेठ बेगारी) पर प्रतिबंध लगाया गया तथा लगान की दरें कम की गई  

➤फ़ादर हाफमैन ने 1908 के छोटानागपुर काश्तकारी को मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए किया गया बहुत ही बहुमूल्य प्रयास बताया 

बिरसा मुंडा एक राष्ट्रवादी था 

परंतु इस आंदोलन को आदिम पर साम्राज्य विरोधी करने से इनकार किया जा सकता 

➤मुण्डा समाज आज भी उन्हे 'बिरसा भगवान', 'धरती आबा', धरती पिता) 'विश्वपिता का अवतार' आदि के रूप में याद करता है उसके गांव चालकंद को तीर्थ स्थल का दर्जा देता है

मुंडा समाज के बीच बिरसा के नाम से एक पंथ -बिरसाई पंथ चल निकला

➤बिरसा  पवित्र  स्मृति मुण्डाओं के हृदय में बनी हुई है।बिरसा की वीरता व  बलिदान की गाथा अनेक लोक कथाओ व लोक गीतों में अमर बन चुकी है

वह आज भी आदिवासियों में नये युग का प्रेरणा पुंज है

वैसा आंदोलन से मुंडा राज का सपना भले ही पूरा नहीं हो सका, लेकिन विद्रोह की आग अंदर ही अंदर सुलगती रही , यही विद्रोह की आग पृथक झारखंड राज्य की प्रेरणा बन गई

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झारखंड के प्रमुख वाद्य यंत्र (Jharkhand Ke Pramukh Vadya Yantra)

झारखंड के प्रमुख वाद्य यंत्र

(Jharkhand Ke Pramukh Vadya Yantra)

1) तंतु वाद्य 

2) सुषिर वाद्य

3) ताल वाद्य 

1) तंतु वाद्य :-

यह वैसे वाद्य होते हैं, जिनके  तारों में कंपन के माध्यम से संगीतमय ध्वनि उत्पन्न की जाती है। जैसे :- एकतारा, भुआंग,केंद्ररी आदि। 

एकतारा :- इसमें एक तार होने के कारण इसे एकतारा कहा जाता है 

इस वाद्य का निचला हिस्सा खोखली लौकी या लकड़ी का बना होता है

यह  देश भर के अपनी धुन में मस्त साधुओं और फकीरों की पहचान का वाद्य यंत्र है

झारखंड में भी अक्सर फकीर/साधुओ  के पास देखा जा सकता है

केन्द्री :- यह संथालों का प्रिय वाद्य है।  

इसे झारखंडी वायलिन भी कहा जाता है। 

इसका निचला हिस्सा कछुए की खाल या नारियल के खाल का बना होता है। 

इसमें 3 तार होते हैं जिनसे मधुर ध्वनि निकलती है। 

भुआंग:-  यह संथालों का प्रिय वाद्य है

दशहरा के समय दासोई नाच में संथाल भुआंग बजाते हुए नृत्य करते हैं

इसमें तार को ऊपर खींच कर छोड़ने से धनुष टंकार जैसी आवाज निकलती है

टूइला :- इसकी वादन शैली कठिन होने के कारण झारखंड में यह कम लोकप्रिय है

2) सुषिर वाद्य :- 

ये वैसे वाद्य होते हैं जिसमें पतली नलिका में फूंक मारकर संगीत में ध्वनि उत्पन्न की जाती है। जैसे :- बांसुरी,सनाई(शहनाई), मदनभेरी, शंख, सिंगा आदि 

बांसुरी :- यह झारखंड का सबसे अधिक लोकप्रिय सुषिर वाद्य है डोंगी बांस से सबसे अच्छी बांसुरी बनाई जाती है

सानाई :- झारखंड के लोक संगीत में सानाई (शहनाई) बांसुरी की तरह लोकप्रिय है 

यह यहां का मंगल वाद्य भी है ,जिससे पूजा, विवाह आदि के साथ-साथ छउ,पाइका आदि नृत्यों में भी बजाया जाता है 

 सिंगा :- प्राय: बैल या भैंस के सींग  से बनाए जाने के कारण सिंगा कहा जाता है

छऊ नृत्य में और शिकार के वक्त पशुओं को खदेड़ने के लिए बजाया जाता है

मदनभेरी :- इस सुषिर वाद्य  में लकड़ी की एक सीधा मिली होती है, जिसके आगे पीतल का मुह रहता है

इसे ढोल, बांसुरी,सानाई के साथ सहायक के रूप में बजाया जाता है

3) ताल वाद्य :-

वैसे वाद्य जिन्हे पीटकर या ठोककर ध्वनि उत्पन्न की जाती है
 

ताल वाद्य दो प्रकार के होते हैं 

I)अवनद्ध वाद्य:-

ये लकड़ी के ढांचे पर चमड़ा मढ़कर बनाए जाने वाले वाद्य हैं इसे मुख्य ताल वाद्य भी कहा जाता है 
जैसे :- मांदर, ढोल, नगाड़ा, धमसा,ढाक ,करहा,डमरू,ढप,जुड़ी नगाड़ा,खंजरी आदि  

मांदर :- यह झारखंड का प्राचीन एवं अत्यंत लोकप्रिय वाद्य है

 इस वाद्य यंत्र को यहां लगभग सभी समुदाय के लोग बजाते हैं

यह पार्शवमुखी  वाद्य है  इसमें लाल मिट्टी का गोलाकार  ढांचा होता है, जो अंदर से बिल्कुल खोखला होता है

इसके दोनों तरफ के खुले सिरे बकरे की खाल से मड़े होते हैं

रस्सी के सहारे कंधे से लटकार  इसे बजाया जाता है

मांदर की आवाज गूंज तार होती है

ढोल :- लोकप्रियता की दृष्टि से इनका स्थान मांदर के बाद आता है

इससे पूजा के साथ-साथ शादी, छांउ, नृत्य , घोड़नाच आदि में भी बजाया जाता है

इसका मुख्य ढांचा आम, कटहल, या गमहार की लकड़ी का बना होता है 

इसके दोनों खुले मुंह को बकरे की खाल से मढ़कर बद्दी से कस दिया जाता है

इसे हाथ या लकड़ी से बचाया जाता है

धामसा :- इसका उपयोग, मांदर, ढोल आदि मुख्य वाद्यों  के सहायक वाद्य  के रूप में किया जाता है

इसकी आकृति कढ़ाही  जैसे होती है

➤छउ  नृत्य में धामसा की आवाज से युद्ध और सैनिक प्रयाण जैसे दृश्यों को साकार किया जाता है

नगाड़ा :- इसे  छोटे और बड़े दोनों प्रकार का बनाया जाता है

➤बड़े नगाड़े का उपयोग सामूहिक उत्सवों  और सामूहिक नृत्य के लिए किया जाता है

ढाक :- इसका मुख्य ढाँचा गम्हार की लकड़ी का बना होता है 

इसके दोनों खुले मुँह को बकरे की खाल से मढ़कर बद्धी से कस दिया जाता है 

इसे कंधे से लटकाकर दो पतली लकड़ी के जरिए बजाया जाता है 

➤यह आकर में मांदर एवं  ढोल से बड़ा होता है

II)धन वाद्य:-

यह प्रया: कांसा के बने होते हैं, इन्हें सहायक ताल वाद्य भी कहा जाता है।जैसे :-करताल,झांझ ,झाल,  घंटा, काठी खाला आदि 

करताल  :- इसमें दो चपटे गोलाकार प्याले होते हैं, जिनके बीच का हिस्सा ऊपर की ओर उभरा होता है

➤उभरे हिस्से के बीच में एक छेद होता है, जिसमें रस्सी पिरो दी जाती है

रस्सीयों को हाथों की अंगुलियों में फंसाकर प्यालो को ताली बजाने की तरह एक दूसरे पर चोट की जाती है
ऐसा करने से मधुर ध्वनि निकलती है 

झांझ :-यह करताल  से बड़े आकार का होता है, बड़ा होने के कारण इसकी आवाज करताल से ज्यादा गुंजायमान होती है

काठी :- यह भी एक धन वाद्य  है ,इसमें कुडची की लकड़ी के दो टुकड़े होते हैं, जिन्हें आपस में टकराने पर मधुर ध्वनि उत्पन्न होती है 

थाला :- यह कासे से  निर्मित थाली की तरह होता है ,थाला  का गोलाकार किनारा दो-3 इंच का उठा होता है 
बीच में छेद होता है, जिससे रस्सी पिरोक झुलाया जाता है

बाएं हाथ से रस्सी थामकर  दाएं हाथ से इसे भुट्टे /मक्का की खलरी से बजाया जाता है 

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Saturday, October 31, 2020

झारखण्ड के प्रमुख लोक नाट्य(Jharkhand Ke Pramukh Lok Natya)

झारखण्ड के प्रमुख लोक नाट्य

(Jharkhand Pramukh Lok Natya)

नाट्य

नाट्य झारखंड के लोकजीवन का अभिन्न अंग है 

यह नाट्य मांगलिक अवसरों, पर्व-त्योहारों के अवसरों पर कभी-कभी मनोरंजन के लिए आयोजित किए जाते हैं 
यह नाट्य लोक जीवन में रंग-रास का संचार करते हैं 

झारखंड की संस्कृति तथा लोकजीवन में लोकनाट्यों का एक अपना ही अलग महत्व  है 

यहां के लोकनाट्य  में कथानक, संवाद, अभिनय, गीत,का अलग ही विशेष नज़ारा होते हैं 

यदि नहीं होते हैं तो वह है- सुसज्जित रंगमंच पात्रों का मेकअप एवं वेश-भूषा 


झारखंड राज्य में प्रचलित लोक नाट्य है 


जट-जटिन

जट-जटिन :- प्रत्येक वर्ष से लेकर कार्तिक माह तक पूर्णिमा अथवा उसके एक-दो दिन पूर्व अथवा पश्चात मात्र अविवाहिताओं द्वारा अभिनीत इस लोकनाट्य में जट -जटिन के विवाहित जीवन को प्रदर्शित किया जाता है 

भकुली बंका

भकुली बंका :-  प्रत्येक वर्ष सावन से कार्तिक माह तक आयोजित किए जाने वाले इस लोकनाट्य में जट- जटिन द्वारा नृत्य किया जाता है 

अब कुछ लोग स्वतंत्र रूप से भी इस नृत्य को करते हैं

इस लोकनाट्य में भकुली (पत्नी) एवं बंका (पति) के विवाहित जीवन को दर्शाया जाता है

सामा-चेकवा

सामा-चेकवा  :- प्रत्येक वर्ष कार्तिक महीने के पूरे शुक्ल पक्ष में चलने वाले इस लोकनाट्य में पात्र तो मिट्टी द्वारा निर्मित होते हैं 

लेकिन उनकी तरफ से अभिनय बालिकाएं करती है 

इस लोक नाट्य में चार प्रमुख पात्र हैं :- सामा (नायिका ), चेकवा(नायक), चूड़का(खलनायक) एवं साम्ब (सामा का भाई) 

इस लोक नाट्य के अंतर्गत सामूहिक गीतों के माध्यम से प्रश्नोत्तर शैली में विषय-वस्तु को प्रस्तुत किया जाता है 

यह लोक नाट्य भाई-बहन  के पवित्र प्रेम से संबंधित होता है  

किर तनिया

किर तनिया :- इस भक्ति पूर्ण लोकनाट्य में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन भक्ति-गीतों के साथ भाव एवं श्रद्धा पूर्वक किया जाते हैं 

डोमकच

डोमकच :- इस अत्यंत घरेलू एवं निजी लोकनाट्य को मुख्यतः घर-आंगन परिसर में विशेष अवसरों तथा बारात जाने के बाद देर रात्रि में महिलाओं द्वारा आयोजित किया जाता है

इस लोकनाट्य का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया जाता है
 
क्योंकि इसके अंतर्गत हास् -परिहास् , अश्लील हाव-भाव एवं संवाद को प्रदर्शित किया जाता है

पुरुषों को इस लोकनाट्य को देखने की मनाही होती है
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Tuesday, October 27, 2020

भूमिज विद्रोह 1832-33 (Bhumij Vidroh-1832-33)

भूमिज विद्रोह 1832-33 (Bhumij Vidroh-1833-33)


➤भूमिज विद्रोह का आरंभ 1832 ईसवी में गंगा नारायण के नेतृत्व में हुआ।  

इसका प्रभाव बीरभूम और सिंहभूम  के क्षेत्र में रहा। 

यह विद्रोह बीरभूम राजा, पुलिस अधिकारियों, मुंसिफ नामक दरोगा तथा अन्य दिकुओ के खिलाफ 
भूमिजो की शिकायतों की देन था। 


साथ ही, इसके पीछे अंग्रेजों की दमनकारी लगान व्यवस्था से उत्पन्न असंतोष भी काम कर रहा था।  

भूमिज विद्रोह की विधिवत शुरुआत 26 अप्रैल 1832 ईस्वी को वीरभूम परगाना के जमींदार के सौतेले 
भाई और दीवान माधव सिंह की हत्या के साथ हुई।  

यह हत्या गंगा नारायण सिंह के द्वारा की गई। 

गंगा नारायण के जमींदार का चचेरा भाई था। 

दीवान के रूप में माधव सिंह काफी बदनाम हो चुका था। 

उसने कई तरह के करों को लगाकर जनता को तबाह कर दिया था।  

माधव का सिंह के खिलाफ गांगा नारायण ने भूमिजो को एक अभूतपूर्व नेतृत्व प्रदान किया।  

माधव सिंह का अंत करने के पश्चात गंगा नारायण की टक्कर कंपनी के फौज के साथ हुई। 
कंपनी की फौज का नेतृत्व ब्रैंडन एवं लेटिनेंट  तिमर के हाथों में था। 

कोल  एवं हो जनजातियों ने इस विद्रोह में गंगा नारायण का खुलकर साथ दिया।  

7 फरवरी 1833  को खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह के खिलाफ लड़ते हुए गंगा नारायण मारा गया।  

खरसावां के ठाकुर ने उसका सर काटकर अंग्रेजी अधिकारी कैप्टन विलकिंग्सन के पास भेज दिया। 

गंगा नारायण के मारे जाने से कैप्टन विलकिंग्सन ने राहत की सांस ली। 


यद्यपि इस विद्रोह में गंगा नारायण के अन्तः पराय हुई ,किन्तु इसने यह स्पष्ट कर दिया था कि जंगल में परिवर्तन की आवश्यकता है। 

कोल की ही भांति भूमिज विद्रोह के बाद के बाद भी कई प्रशासनिक परिवर्तन लाने हेतु अंग्रेज विवश हुए। 

1833 ईस्वी की रेगुलेशन XIII  के तहत शासन प्रणाली में व्यापक परिवर्तन किया गया है।  

राजस्व नीति में परिवर्तन हुआ एवं छोटानागपुर को दक्षिण-पश्चिम सीमांत एजेंसी का एक भाग मान लिया गया। 
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Monday, October 26, 2020

झारखण्ड का धरातलीय स्वरुप ( Jharkhand ka dharataliya swaroop)

Jharkhand Ka Dharataliya Swaroop

झारखण्ड का धरातलीय स्वरुप

झारखण्ड का धरातलीय स्वरुप

किसी क्षेत्र के धरातलीय स्वरूप को भौतिक स्वरूप, भौतिक विभाजन/ विभाग, भौगोलिक विभाजन, प्राकृतिक प्रदेश आदि भी कहा जाता है

जहां तक झारखंड के धरातलीय स्वरूप की बात है, तो इसमें छोटानागपुर के पठार का महत्वपूर्ण योगदान है 

यह पठार प्रायद्वीपीय पठारी भाग का उत्तर-पूर्वी खंड है

 इस पठार की औसत ऊंचाई 760 मीटर है

उल्लेखनीय है कि पारसनाथ की चोटी की ऊंचाई 1365 मीटर है

झारखंड के धरातलीय स्वरूप को मुख्य रूप से चार भागों में बांटा जाता है

1- पाट  क्षेत्र / पश्चिमी पठार 
2 -रांची पठार
3 - हजारीबाग पठार 
    a) -उपरी हजारीबाग पठार 
    b) -निचली हजारीबाग पठार या बाहर पठार 
4 - निचली नदी घाटी एवं मैदानी क्षेत्र

1-पाट क्षेत्र

1 - पाट क्षेत्र या पश्चिमी पठार :- यह  झारखंड का सबसे ऊंचा भाग है (पारसनाथ पहाड़ को छोड़कर)

पाट  का शाब्दिक अर्थ है :- समतल जमीन 

क्योंकि इस भूभाग में अनेक छोटे-छोटे पठार हैं, जिसकी ऊपरी सतह समतल है इसलिए इसे स्थानीय भाषा में पाट क्षेत्र कहते हैं

इसका विस्तार रांची जिले के उत्तर-पश्चिमी भाग से लेकर पलामू के दक्षिणी किनारा तक है
इससे पश्चिमी पठार भी कहते हैं 

यह भूभाग त्रिभुजाकार हैं, जिसका आधार उत्तर में तथा शीर्ष दक्षिण में है 

इस क्षेत्र का उत्तरी भाग ठाढ़ एवं निचला भाग दोन कहलाता है

इस क्षेत्र की समुद्र तल से औसत ऊंचाई 900 मीटर है

इस क्षेत्र में स्थित ऊंचे पाटो में नेतरहाट पाट (1180 मीटर), गणेशपुर पाट  (1171 मीटर) एवं जमीरा पाट (1142 मीटर) मुख्य है 

इस क्षेत्र में मैदान स्थित पहाड़ियों में सानू एवं सारउ पहाड़ी मुख्य हैं

इस क्षेत्र में अनेक नदियों का उद्गम स्थल है, जैसे:- उत्तरी कोयल, शंख, फुलझर आदि 

इस क्षेत्र की अधिकांश नदियां चारों तरफ की ऊंचे पठारों से निकलकर शंख नदी में मिल जाती हैं 

उत्तरी कोयल, शंख आदि नदियों से काट छांट अधिक हुआ है

➤बारवे का मैदान इसी पाट क्षेत्र में स्थित है जिसका आकार तश्तरीनुमा है

2-रांची पठार 

रांची पठार :-यह झारखंड का सबसे बड़ा पठारी भाग है 

पाट क्षेत्र को छोड़कर रांची के आसपास के निचले इलाकों को इसमें शामिल किया जाता है

इस क्षेत्र की समुद्र तल से औसत ऊंचाई 600 मीटर है

रांची पठार लगभग चौरस है 

इस चोरस पठारी भाग से कई नदियां निकलती है, जो पठार के किनारों पर खड़ी ढाल के कारण झरनों / जलप्रपातों  का निर्माण करती है 

इसमें बूढ़ाघाघ /लोधाघाघ , हुंडरू, सदनीघाघ, घाघरी , दशम  तथा जॉन्हा / गौतम धारा आदि प्रमुख हैं

3-हजारीबाग पठार

हजारीबाग पठार :- हजारीबाग पठार को दो भागों में विभाजित किया जाता है 



(a) ऊपरी हजारीबाग पठार :- रांची पठार के लगभग समांतर किंतु छोटे क्षेत्र में हजारीबाग जिले में फैले पठार को ऊपरी हजारीबाग पठार कहते हैं 

यह दोनों पठार कभी मिले हुए थे, लेकिन अब दामोदर नदी के कटाव के कारण अलग हो गए हैं

ऊपरी हजारीबाग पठार की समुद्र तल से ऊंचाई 600 मीटर है

(b) निचला हजारीबाग पठार/ बाह्य पठार :-  हजारीबाग पठार के उत्तरी भाग को निचला हजारीबाग पठार कहते हैं

➤यह झारखंड का निम्नतम ऊंचाई वाला पठारी भाग है

छोटा नागपुर पठार का बाहरी हिस्सा होने के कारण इसे बाह्य पठार भी कहते हैं

➤इस क्षेत्र की समुद्र तल से ऊंचाई 450 मीटर है

किसी क्षेत्र में गिरिडीह के पठार पर बराकर नदी की घाटी के निकट पारसनाथ की पहाड़ी स्थित है
जिसकी ऊंचाई 1365 मीटर है

इसकी सबसे ऊंची चोटी को सम्मेद शिखर कहा जाता है 

इसे अत्यंत कठोर पाईरोक्सीन ग्रेनाईट से निर्मित माना जाता है 

4 -निचली नदी घाटी एवं मैदानी क्षेत्र


4 -निचली नदी घाटी एवं मैदानी क्षेत्र :- झारखंड का यह भाग असमान नदी घाटियों एवं मैदानी क्षेत्र से मिलकर बना है 

इस भाग की समुद्र तल से औसत ऊंचाई 150-300 मीटर है 
 
इस क्षेत्र में राजमहल की पहाड़ी स्थित है, जो कैमूर के पहाड़ी क्षेत्र तक विस्तृत है 

राजमहल की पहाड़ी का विस्तार दुमका, देवघर, गोड्डा ,पाकुड़ का पश्चिमी भाग एवं साहिबगंज का मध्यवर्ती व दक्षिणी भाग में है  

राजमहल की पहाड़ी 2000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है  

इस क्षेत्र में कहीं-कहीं छोटी पहाड़ियां मिलती है 

नुकीली पहाड़ियों को टोंगरी  एवं गुबंदनुमा पहाड़ियों को डोंगरी कहते हैं 

इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में बड़ी-बड़ी नदियों की घाटियां हैं  
जैसे :- दामोदर, स्वर्णरेखा, उत्तरी कोयल, दक्षिणी कोयल, बराकर,शंख, अजय, मोर, ब्राह्मणी, गुमानी एवं बासलोय इत्यादि 

इस क्षेत्र में स्थित कुछ नदियां ऊंचे पठारों से निकलकर अपना मार्ग तय करती हुई गंगा में अथवा स्वतंत्र रूप से सागर में जाकर मिलती है 
 
इस क्षेत्र में स्थित मैदानी क्षेत्र में चाईबासा का मैदान सबसे प्रमुख है
  
चाईबासा का मैदान पश्चिमी सिंहभूम के पूर्वी-मध्यवर्ती भाग में स्थित है
  
यह उत्तर में दलमा की श्रेणी, पूर्वी में दलभूम की श्रेणी, दक्षिण में कोल्हान की पहाड़ी, पश्चिम में सारंडा  एवं पश्चिमी-उत्तर में पोरहाट की पहाड़ी से घिरा है 
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Sunday, October 25, 2020

झारखंड ऊर्जा नीति 2011 (Jharkhand Urja Niti 2011)

झारखंड ऊर्जा नीति 2011(Jharkhand Urja Niti 2011)

➤राज्य के आर्थिक एवं संपूर्ण विकास के लिए ऊर्जा एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है

कृषि, औद्योगिक और व्यवसायिक क्षेत्रों में विकास के लिए उर्जा को सार्वभौमिक रूप से एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में स्वीकार किया गया है

बिना ऊर्जा के कोई भी बड़ा आर्थिक विकास संभव नहीं है

वर्तमान समय में ऊर्जा की अपर्याप्त उपलब्धता राज्य के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है

ऊर्जा की मांग प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है

झारखंड में प्रति व्यक्ति ऊर्जा की औसत खपत 552 यूनिट है, जिसकी आपूर्ति डी0 वी0 सी0 ,जुस्को एंड सेल से होती है

राष्ट्रीय औसत 720 यूनिट प्रति व्यक्ति से कम है

झारखंड राज्य विद्युत बोर्ड  और तेनुघाट विद्युत निगम लिमिटेड की स्थापित क्षमता 1390 MW जिसमे की 1260 MW ताप और 130 MW जल विद्युत् है 

झारखंड औद्यौगिक नीति का मुख्य उद्देश्य राज्य के विकास को  गति प्रदान करना है, ताकि झारखंड अन्य राज्यों के समक्ष खड़ा हो सके

➤यह झारखंड राज्य का सौभाग्य है कि यहां पर ताप आधारित ऊर्जा उत्पादन की संभावना काफी अधिक है 

प्रचुर मात्रा में कोल उपलब्ध होने के कारण झारखंड राज्य पावर हब बन सकता है

जहां से दूसरे राज्य को भी विद्युत का निर्यात किया जा सकता है

झारखंड ऊर्जा नीति का मुख्य उद्देश्य

झारखंड ऊर्जा नीति का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की पूर्ति करना और विश्वसनीय गुणवत्तायुक्त, फिकायती शिकायती दर पर ऊर्जा की उपलब्धता को सुनिश्चित करना है

झारखंड ऊर्जा नीति 2011 के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य है 

सभी घरों में 2014 तक विद्युत की आपूर्ति को सुनिश्चित करना 

ऊर्जा की कमी को पूरा करना 

उपभोक्ता के हितों की रक्षा करना

विश्वसनीय एवं गुणवत्तायुक्त ऊर्जा की आपूर्ति उचित दर पर करना 

प्रति व्यक्ति विद्युत की उपलब्धता को 2017 तक 1000  यूनिट से अधिक करना 

बिजली के ट्रांसमिशन और वितरण क्षमता को दुरुस्त करना, ताकि विद्युत की आपूर्ति, क्षमता, गुणवत्ता को बढ़ाया और घाटे को कम किया जा सके 

पर्यावरण के अनुकूल उत्पादन क्षमता को बढ़ाना  

वर्तमान विद्युत उत्पादक संयत्रों का नवीनीकरण करके उनके  उत्पादक क्षमता को बढ़ाना 

राज्य के सभी गांव एवं घरों का शीघ्र विद्युतीकरण कर उर्जा की आपूर्ति को सुनिश्चित करना 

झारखंड स्टेट इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमिशन को और अधिक मजबूत करना और उसके प्रशासनिक व्यवस्था को पारदर्शी बनाना  

➤विद्युत् ऊर्जा का  सक्षम तरीके से उपयोग एवं उसके संरक्षण को सुनिश्चित करना  

ऐसी संभावना है कि झारखंड ऊर्जा नीति 2011 राज्य के विद्युत समस्या को दूर करने में सक्षम साबित होगा 

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Saturday, October 24, 2020

झारखंड में वन प्रबंधन(Jharkhand Me Van Prabandhan)

Jharkhand Me Van Prabandhan

झारखंड में वन प्रबंधन

झारखंड में वन प्रबंधन का सबसे पहले प्रयास 1882/85 में जे0.एफ.हेबिट  द्वारा किया गया था 

इसी आलोक में तत्कालीन बंगाल सरकार ने 1909 में वनों की सुरक्षा के लिए एक समिति गठित की थी 

आजादी के पहले यहां पर 95% वन निजी थे जिनका सरकारी करण हुआ 

राज्य में 33% या उससे ज्यादा वन क्षेत्र बनाने के लिए वन प्रबंधन की आवश्यकता है

कार्य

राज्य में वनों के बेहतर प्रबंधन के उद्देश्य से 31 प्रदेशिक प्रमंडलों, 10 सामाजिक वानिकी प्रमंडलों एवं चार विश्व खाद्य कार्यक्रम प्रमंडलों का सृजन किया गया है, जिसके माध्यम से वनों एवं वन्य प्राणियों के प्रबंधन, संवर्धन एवं विकास का काम किया जाता है

दायित्व

झारखंड राज्य में वनों के प्रबंधन का दायित्व प्रधान सचिव/ सचिव, वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग के अतिरिक्त भारतीय वन सेवा, राज्य वन सेवा संवर्ग पदाधिकारियों, वनों के क्षेत्र पदाधिकारियों, वन परिसर पदाधिकारियों और वन उप परिसर पदाधिकारियों का है

वन विभाग में वनों के प्रबंधन, संवर्धन, संरक्षण और सुरक्षा तथा विकास योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु प्रधान मुख्य वन संरक्षक का पद स्वीकृत है

वनों के प्रबंधन एवं संरक्षण में व्यापक जनसभा सहभागिता सुनिश्चित करने के लक्ष्य से राज्य सरकार द्वारा संयुक्त वन प्रबंधन संकल्प 2001 में यथा तथा संशोधित प्रतिपादित किया गया है, जिसके आलोक में 10903 संयुक्त वन प्रबंधन समितियां गठित की गई है एवं वनों के विकास एवं संरक्षण हेतु योजनाओं के क्रियान्वयन करने के लिए राज्य के सभी प्रदेशिक वन प्रमंडल में 35 वन विकास अभिकरण का गठन एवं निबंधन कार्य पूरा किया गया है

वन प्रबंधन के लिए कार्य किये जा रहे हैं 

राज्य में 9,00,000 (लाख) हेक्टेयर से ज्यादा भूमि बंजर है 

इस भूमि पर वन रोपण का कार्य किया जा रहें है

वन  प्रबंधन प्रशिक्षण के लिए रांची में बिरसा कृषिविश्वविद्यालय से सम्बद्ध वानिकी कॉलेज में एक वानिकी संकाय स्थापित की गई है

दसवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत झारखंड के 3424 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन रोपण का लक्ष्य रखा गया है

राज्य में कई  स्थाई  पौधशालाओं की स्थापना की गई है

शहरी वानिकी के माध्यम से राज्य के नगरों में वृक्षारोपण किया जा रहा है

सामाजिक वानिकी से ग्रामीण जनसंख्या की वनों पर निर्भरता कम कर उसकी आवश्यकता की पूर्ति कराने का काम भी किया जा रहा है

वन समितियां गठित कर वन क्षेत्रों के प्रबंधन एवं संरक्षण कार्य किए जा रहे हैं 

निजी वन भूमि पर वृक्षारोपण के लिए मुख्यमंत्री जनवन योजना की शुरुआत की गई है 

बॉस  वृक्ष रोपण पर विशेष बल दिया जा रहा है 

राज्य में 116 स्थाई नर्सरी को और अधिक उन्नत बनाया जा रहा है 

जंगली जानवरों के आक्रमण से किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर ढाई लाख रुपया दिया जाएगा 

ग्रामीणों के आय के साधन बढ़ाने हेतु सेल्फ हेल्प ग्रुप एवं ग्राम वन प्रबंधन समितियों  के माध्यम से पलाश एवं कुसुम के पौधों पर लाह  उत्पादन हेतु निशुल्क प्रशिक्षण, प्रयुक्त होने वाले मशीन एवं टूल्स तथा लाह कीट सुलभ कराया जा रहा है

ई-गवर्नेंस के तहत विभागीय वेबसाइट तैयार की गई है ताकि सूचनाएं तुरंत उपलब्ध हो सके 

वेबसाइट का नाम फॉरेस्ट डॉट झारखंड डॉट गवर्नमेंट डॉट इन है 

जनसाधारण में प्रकृति के प्रति लगाव उत्पन्न करने, विशेषकर उन्हें वन्य प्राणियों एवं संरक्षित क्षेत्रों के संरक्षण के प्रति जागरूक करने के लिए संरक्षित क्षेत्रों तथा इनके बाहर उपयुक्त वन क्षेत्र में एनवायरमेंटल फ्रेंडली सस्टेनेबल तरीके से इको-टूरिज्म को प्रोत्साहित करने के लिए इको टूरिज्म नीति, 2015, अक्टूबर, 2015 में अधिसूचित की गई है

अधिसूचित वन भूमि, गैर-वन भूमि पर मुख्य रूप से स्थल विशिष्ट वनरोपण  योजनाएं,भूसंरक्षण योजना, जल्दी बढ़नेवाले पौधे की योजना, तसर वन रोपण, शीशम वनरोपण के लिए वित्तीय वर्ष 15-16 में 6900 लाख का बजट उपबंध स्वीकृत है

पथ -तट रोपण सह वानिकी योजना के अंतर्गत आम नागरिकों को स्वच्छ ,स्वास्थ्य कारक एवं आराम देह वातावरण उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सड़कों के किनारे, सरकारी परिसरों तथा स्कूलों, कॉलेजों, सरकारी कार्यालयों, पहाड़ियों इत्यादि पर उपयुक्त छायादार/ फलदार/ फूलदार /इमारती कास्ट/अन्य  सौंदर्य कारक प्रजातियों का वृक्ष रोपण किया जा रहा है

स्थाई पौधशाला एवं सीड् आर्चड्स  योजनान्तर्गत मुख्य रूप से बॉस गोबियन वृक्षरोपण हेतु औसतन 5 से 8 फीट लंबे पौधे तैयार किए जा रहे हैं

वन प्रबंधन में संयुक्त वन प्रबंधन की नीति एक सफल और उपयोगी नीति है ,जो वनों के प्रति आम नागरिकों में उनके कर्तव्यों के प्रति जागरूकता उत्पन्न करती हैं 

झारखंड में वन संवर्धन और प्रबंधन की विधिवत  शिक्षा के लिए रांची में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय से संबद्ध वानिकी कॉलेजों में वानिकी संकाय स्थापित है

झारखंड में प्राकृतिक संसाधनों को बेहतर प्रबंधन के लिए वन अभिलेखों एवं वन सीमाओं का डिजिटलाइजेशन एवं जियोरेफरेंसिंग करने की योजना है

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Friday, October 23, 2020

झारखंड में वन नीति(Jharkhand Me Van Niti)

झारखंड में वन नीति

(Jharkhand Me Van Niti)


स्वतंत्र भारत के प्रथम वन नीति 1952 में बनी थी

1952 से 1988 के बीच वनों का इतना विनाश हुआ कि वनों और उनके उपयोग पर एक नई नीति बनाना आवश्यक हो गया

पहले की वन नीतियों का केंद्र केवल राज्य का सृजन था

1980 के दशक में स्पष्ट हो गया कि वनों का संरक्षण उनके अन्य कार्यों के लिए भी आवश्यक है, जैसे मृदा और जल व्यवस्थाओं के संरक्षण के लिए, जो पारितंत्र को सुरक्षित रखने में सहायक होते हैं

इनमें स्थानीय निवासियों के लिए वनों से प्राप्त वस्तुओं और सेवाओं के उपयोग की व्यवस्था भी होनी चाहिए

इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए 1988 ईस्वी में राष्ट्रीय वन नीति की घोषणा की गई

भारत की राष्ट्रीय वन नीति, 1988 के अनुसार किसी प्रदेश के कुल क्षेत्रफल के 33 पॉइंट 33 प्रतिशत भाग पर वन का विस्तार होना चाहिए

झारखंड के कुल क्षेत्रफल का 29 पॉइंट 61 प्रतिशत भाग पर वन है

राज्य में वन क्षेत्र को 33% से अधिक करने के लिए झारखंड सरकार ने वन नीति बनाई है


1) प्रत्येक गांव में एक वन समिति होगी, जिसमें गांव के प्रत्येक परिवार का एक सदस्य होगा 

2) राज्य में 200 वन समितियों का गठन किया गया है

3) ग्रामीणों की आवश्यकता अनुसार वृक्षारोपण किया जाएगा

4) वन उत्पादों को सरकारी एजेंसियों के माध्यम से खरीद की जाएगी

5)  वनों की सुरक्षा का भार ग्रामीण और वन विभाग दोनों के ऊपर होगा
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Thursday, October 22, 2020

जनजातीय सुरक्षा एवं विकास संबंधित संवैधानिक प्रावधान (Janjatiye Suraksha Aur Vikas Sambandhit Sanvaidhanik Pravadhan)

जनजातीय सुरक्षा और विकास संबंधित संवैधानिक प्रावधान

(Constitutional Provisions Related To Tribal Security And Development)






जनजातीय सुरक्षा संबंधी प्रावधान 

अनुसूचित जनजातियों की सुरक्षा से संबंधित प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 15 (4), 16(4), 19(5), 23,29, 46, 164(1) ,330, 332, 334, 335, 338, 339(1), 5वी अनुसूची में दिए गए हैं  

अनुच्छेद 15(4) :- सामाजिक आर्थिक एवं शैक्षणिक हितों का विकास

अनुच्छेद 16(4) :- पदों वह सेवाओं में आरक्षण

अनुच्छेद 19(5) :-संपत्ति में जनजातियों के हितों की सुरक्षा

अनुच्छेद 23 :- मानव के दुर्व्यवहार और बाल श्रम का प्रतिषेध 

अनुच्छेद 29 :- अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण 

अनुच्छेद 46 :- अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य कमजोर वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि

अनुच्छेद 164(1) :- कुछ राज्यों में (जिसमें झारखंड भी शामिल है) जनजातियों के कल्याण के लिए एक मंत्री भी नियुक्त 

अनुच्छेद 330 :- लोकसभा में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों को सुरक्षित रखा गया है

अनुच्छेद 332 :- राज्य की विधान सभाओ  में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का रिज़र्व 

अनुच्छेद 334 :- स्थानों के आरक्षण एवं विशेष प्रतिनिधित्व का (60) वर्ष के पश्चात न रहना 

अनुच्छेद 335 :- सेवाओं एवं पदों के लिए अनुसूचित जातियों  एवं अनुसूचित जनजातियों के दावे 

अनुच्छेद 338 :- अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग

अनुच्छेद 339(1) :- राज्यों के अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन एवं अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के संबंध में रिपोर्ट देने के लिए राष्ट्रपति द्वारा आयोग की नियुक्ति

पांचवी अनुसूची :- अनुसूचित क्षेत्रों में एवं अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन एवं नियंत्रण के बारे में उपबंध

जनजातीय विकास कल्याण संबंधी प्रावधान 

अनुसूचित जनजातियों के विकास (कल्याण) से संबंधित प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 275 एक एवं 340 दो में दिए गए हैं 

अनुच्छेद 275(1) :-  कुछ राज्यों को संघ से अनुदान 

अनुच्छेद 339(2) :-  दो  केंद्रीय कार्यपालिका द्वारा राज्यों को अनुसूचित जनजाति के विकास के लिए उपयुक्त कार्यक्रमों को लागू करने का निर्देश



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Tuesday, October 20, 2020

झारखंड में नगर प्रशासन (Municipal administration in Jharkhand)

झारखंड में नगर प्रशासन

(Municipal administration in Jharkhand)


नगर प्रशासन

झारखंड राज्य के शासन-प्रशासन में नगरीय प्रशासन की भूमिका शहरी क्षेत्रों का चयन सुनियोजित विकास स्थानीय संसाधनों  का अधिकतम लाभ हेतु उपयोग, स्वास्थ्य व्यवस्था, लोक सेवाओं का निरूपण आदि की सुविधाएं उपलब्ध कराने की होती है


नगर निगम

नगर निगम 10 लाख से अधिक लेकिन 20 लाख से कम जनसंख्या वाले शहरों में नगर निगम का गठन होता है

नगर निगम झारखंड में रांची, धनबाद, देवघर, हजारीबाग, चास एवं रामगढ़ में नगर निगम स्थापित है

नगर परिषद

नगर परिषद का गठन सन 1922 में ही हो गया था जो कई संशोधनों के बाद वर्तमान रूप में आया है

नगर परिषद क्षेत्र की आबादी 5,00,000 लाख से 10,00,000 लाख के बीच होती है

 इसके 4 अंग होते हैं 

1 -परिषद 
2 -समिति
3 -अध्यक्ष /उपाध्यक्ष 
4 -कर्मचारी

नगर परिषद के सदस्यों की संख्या राज्य सरकार निर्धारित करती है

2016 ईस्वी में झारखंड में नगर परिषद की कुल संख्या 18 है 

इसमें 80% सदस्य निर्वाचित होते हैं

 शेष को मनोनीत किया जाता है

वाडो में विभाजित नगर परिषद के प्रत्येक वार्ड का एक पार्षद (कौंसलर) होता है

नगर परिषद के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष अवैतनिक होते हैं 

प्रमुख कार्यपालक अधिकारी व उसके सहायक राजस्व, स्वास्थ्य, जल अभियंता, लेखपाल, कनिष्ठ अभियंता, कर दरोगा और अन्य कर्मचारी होते हैं

नगर परिषद के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं

पेयजल की आपूर्ति ,हैंडपंपों की स्थापना और रख रखाव

 जन्म और मृत्यु का पंजीकरण व प्रमाण पत्र निर्गत करना

प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना और शिक्षा-व्यवस्था 

नगर के सभी मकानों के नंबरों का निर्धारण करना

सार्वजनिक सड़कों एवं गलियों पर प्रकाश-व्यवस्था करना 

नगर की नालियों का निर्माण, रख रखाव और सफाई करना 

सार्वजनिक स्थलों एवं पार्क आदि की साफ सफाई करना 

मच्छर,कीड़ों आदि के प्रकोप की रोकथाम के लिए आवश्यक कदम उठाना 

स्वस्थ संबंधी कार्य, अस्पतालों का रख-रखाव और सफाई आदि करना 

पेयजल की स्वच्छता बनाए रखने के लिए कुआँ और हैंडपंपों का रखरखाव

 इसके अतिरिक्त नगरीय प्रशासन में क्षेत्रीय विकास पदाधिकारी, उन्नयन न्यास और नगर पंचायत भी संबंधित क्षेत्र के  सवर्गिन  विकास, उसकी नागरिक सुरक्षा, सुविधाओं और शक्तियों और नागरिक अधिकारों के तहत कार्य करते हैं

झारखंड राज्य में क्षेत्रीय विकास परिषद अभी केवल रांची में ही कार्यरत हैं 

इसके कार्यों में भी सड़क,बिजली ,पानी आदि की समुचित व्यवस्था करना है

उन्नयन न्यास भी इन्हीं कार्यों को करते हैं 

नगर पंचायत 5000 से 10000 की आबादी वाले क्षेत्र में गठित होते हैं

यह व्यवस्था उन ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित की जाती है

जो शहरीकरण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ने लगते हैं 

ऐसे समय में नगर पंचायत योजनाबद्ध विकास के साथ बिजली, पानी, सड़क और स्वच्छता के कार्य संपादित करती है

झारखंड में 15 नगर पंचायत है

छावनी बोर्ड

 यह उन शहरों में स्थापित किया जाता है जहां सैन्य छावनी होती है

 यह भारत के प्रतिरक्षा मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करते हैं 

इनकी कार्यप्रणाली नगरपालिकाओं के समान ही होती हैं

राज्य सरकार का इन छावनी बोर्ड पर कोई नियंत्रण नहीं होता है 

झारखंड राज्य में एकमात्र छावनी बोर्ड रामगढ़ में स्थापित है 

इसके अतिरिक्त दो अधिसूचित क्षेत्र समिति और एक नगर पालिका जुगसलाई  है
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