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Saturday, January 2, 2021

Jharkhand Ke Pramukh Mandir (झारखंड के प्रमुख मंदिर)

Jharkhand Ke Pramukh Mandir

झारखंड के प्रमुख मंदिर

छिन्नमस्तिका मंदिर (रजरप्पा)

➤यह मंदिर रामगढ़ जिला में अवस्थित है

यह दामोदर नदी और भेड़ा (भैरवी) नदी के संगम पर स्थित है

इसकी प्रसिद्ध शक्तिपीठ के रूप में है तंत्रिकों के लिए तंत्र-साधना हेतु इसे उपयुक्त स्थल माना जाता है

यहां शारदायी दुर्गा उत्सव में मां की महानवमी पूजा सबसे पहले संथाल आदिवासियों के द्वारा प्रारंभ की जाती है और इन्हीं के द्वारा प्रथम बकरे की बलि दी जाती है

इस मंदिर में देवी काली की धड़ से अलग सर वाली मूर्ति स्थापित है जिस कारण इसे छिन्नमस्तिका कहा जाता है

यह मूर्ति शक्ति के तीन रूपों-सौम्या, उग्र और काम में से उग्र रूप को प्रतिनिधित्व करती है

➤देवी की छिन्न मस्तक मानव मस्तिक की चंचलता का प्रतीक है

देवी के दाएं और बाएं डाकिनी और शाकिनी विराजमान है

देवी के पैरों के नीचे रती-कामदेव को दर्शाया गया है जो कामनाओं के दमन का प्रतीक है

➤छिन्नमस्तिका मंदिर को वन दुर्गा मंदिर भी कहा जाता है क्योंकि 1947 ईस्वी तक यह मंदिर घने वनों के बीच स्थित है

देवड़ी मंदिर (राँची)

यह मंदिर तमाड़ से 3 किलोमीटर दूर देवड़ी नामक ग्राम में स्थित है

यहां 16 भुजा देवी की मूर्ति है

देवी की मूर्ति के ऊपर शिव की मूर्ति है तथा अगल-बगल में सरस्वती, लक्ष्मी, कार्तिक और गणेश की मूर्तियां हैं

परंपरा के अनुसार इस मंदिर में सप्ताह में 6 दिन पाहन और एक दिन ब्राह्मण  पुजारी पूजा करते हैं

जगन्नाथ मंदिर (राँची)

इस  मंदिर की स्थापना 1691 नागवंशी राजा ठाकुर ऐनी शाह  के द्वारा की गई थी

यह पुरी के जगन्नाथ मंदिर की तर्ज पर यहां भी 100 फीट ऊंची मंदिर का निर्माण किया गया है

रथ यात्रा के समय यहां विशाल मेला लगता है

 यह मंदिर रांची के क्षेत्र में जगह-जगह नाथ स्थित है 

कौलेश्वरी मंदिर (चतरा)

मां कौलेश्वरी देवी का मंदिर चतरा में स्थित है

मां कौलेश्वरी देवी का मंदिर 1575 फुट की ऊंचाई वाले कलुआ पहाड़ पर स्थित है 

➤कोल्हुआ पहाड़ तीन धर्मों  हिंदू, बौद्ध और जैनों का संगम स्थल है 

यहां जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव,पार्शवनाथ आदि की प्रतिमाएं स्थापित है 

कई मंदिरों के समूह को कालेश्वरी का मंदिर कहा जाता है

यह गुफाओं का मंदिर है

यहां पशु बलि दी जाती है और मेले का आयोजन होता है

मां भद्रकाली मंदिर (इटखोरी चतरा)  

यह मन्दिर चतरा जिला में चौपारण से 16 किलोमीटर की दूरी पर इटखोरी प्रखंड के भदौली गांव में स्थित है

इस मंदिर में भद्रकाली की मूर्ति प्रतिष्ठित है

यह मूर्ति शक्ति के रूप तीन रूपों -सौम्य, उग्र व काम में से सौम्य रूप का प्रतिनिधित्व करती है

यह एक ही शिलाखंड से तराशी गई मूर्ति है, जो साढ़े चार फीट ऊंची, ढाई फीट चौड़ी और 30 मन भारी है

संभवत यह  मंदिर पालकाल में (पांचवी-छटवीं शताब्दी) स्थापित की गई थी

यह सहत्रीलिंगी शिवलिंग भी है, जिसमें एक 1008 छोटे-छोटे शिवलिंग उकेरे गए हैं

मंदिर परिसर में ही कोठेश्वरनाथ स्तूप है, जिसके चारों ओर भगवान बुद्ध की मूर्तियां अंकित है

इसके ऊपर 4 इंच लंबा, चौड़ा और गहरा गड्ढा है, जिसमें हमेशा 3 इंच पानी बना रहता है

कुंदा का किला (चतरा)

यह किला चेरों का था, जो चतरा जिले के कुंदा  नामक स्थान पर स्थित है,अब यह खंडहर हो चुका है

इस कीले की मीनारें मुगल शैली से निर्मित है

किले के प्रांगण में एक कुआं है, जहां सुरंगनुमा रास्ता था

बैद्यनाथ मंदिर(देवघर)

इस मंदिर का निर्माण गिद्दौर राजवंश के दसवें राजा पूरणमल द्वारा कराया गया था

शिव  के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक मनोकामना लिंग बैद्यनाथ धाम देवघर में स्थापित है

इस मंदिर के प्रांगण में कुल 22 मंदिर हैं

➤ये हैं - वैद्यनाथ, पार्वती, लक्ष्मीनारायण, तारा, काली, गणेश, सूर्य, सरस्वती, रामचंद्र, देवी अन्नपूर्णा, आनंद भैरव, नीलकंठ, गंगा, नरदेश्वर, राम-लक्ष्मण-सीता, जगत जननी, काल भैरव, ब्रह्म, संध्या गौरी, हनुमान, मनसा शंकर, बगुला माता काली के मंदिर

यह भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है

अकबर के सेनापति मानसिंह द्वारा यहां पर निर्मित एक मानसरोवर तालाब है

मंदिर के गर्भगृह के शिखर पर अष्टदल कमल के बीच में चंद्रकांत मणि है

यहां भगवान शिव के शिखर पर पंचशूल स्थापित है

युगल मंदिर(देवघर)

यह  मंदिर भी देवघर में है

इसे  नौलखा मंदिर के नाम से जाना जाता है इसका निर्माण में ₹900000 खर्च हुए थे

तपोवन मंदिर (देवघर)

यहां भगवान शिव का एक मंदिर है

➤यहाँ गुफाएँ हैं ,जिसमें ब्रह्मचारी लोग निवास  करते हैं

कहा जाता है कि कभी माता सीता ने यहां तपस्या की थी

बासुकीनाथ धाम (दुमका)

बासुकीनाथ धाम दुमका से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है

बैद्यनाथ धाम आने वाले प्राय: प्रत्येक तीर्थयात्री यहां आए बगैर दिन और अपनी यात्रा पूरी नहीं मानता

बासुकीनाथ की कथा समुद्र मंथन  से जुड़ी हुई है ,समुन्द्र मंथन में मंदराचल पर्वत को मथानी और बासुकीनाथ को रस्सी  बनाया गया था

बासुकिनाथ मंदिर को 150 वर्ष बताया जाता है, जिसका निर्माण बासकी तांती ने कराया था, जो हरिजन जाति का था

शिवरात्रि के दिन यहाँ  विशाल मेला लगता है

महामाया मंदिर (गुमला)

रांची-लोहरदगा-गुमला मार्ग में लोहरदगा से 14 किलोमीटर दूर गम्हरिया नामक स्थान में 1 किलोमीटर पश्चिम में हापामुनी नामक गांव में महामाया का मंदिर स्थित है

इस मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा गजघंट ने 908 ईस्वी में करवाया था

इस मंदिर में काली मां की मूर्ति स्थापित है

यह एक तांत्रिक पीठ है

इस मंदिर का प्रथम पुरोहित द्विज हरिनाथ थे

टांगीनाथ मंदिर (गुमला)

यह मंदिर में मझगांव की पहाड़ी पर स्थित है

टांगी पहाड़ पर शिवलिंग के अलावा दुर्गा,भगवती, लक्ष्मी ,गणेश, अर्धनारीश्वर, विष्णु, सूर्यदेव, हनुमान आदि की मूर्तियां हैं

➤ये मूर्तियां प्राचीन शिल्पकला के  सुंदर नमूने हैं

मुख्य मंदिर का नाम टांगीनाथ अथवा शिव मंदिर है

मंदिर के अंदर एक विशाल शिवलिंग के अलावा आठ अन्य शिवलिंग भी है

हल्दीघाटी मंदिर (गुमला)

यह मंदिर गुमला जिले के कोराम्बे नामक स्थान में स्थित है

यहां का पहला शासक कोल तेली राजा था।बाद में यहाँ रक्सेल आये 

➤यह स्थान नागवंशी राजा तथा रक्सेल के लिए हल्दी घाटी के समान माना जाता है

कोरमबे में वासुदेव राय का मंदिर है

वासुदेव राय की काले पत्थरों से निर्मित आकर्षक मूर्ति प्राचीन परंपरा का प्रतीक है

मां योगिनी का मंदिर(गोड्डा)

यह मंदिर बराकोपा पहाड़ी पर स्थित है

मान्यता है अनुसार मां-सीता का दाहिना जांघ यहां गिरा था

यहां मां की प्रतिमा के रूप में जाँघ  की आकृति का शैल अंश है 

भक्तजन यहां लाल वस्त्र चढ़ाते हैं

इस मंदिर के समस्त निर्माण खर्चों का वहन श्रीमती चारुशिला देवी ने किया था

श्री बंशीधर मंदिर (गढ़वा) :-

यह मंदिर नगर उंटारी में राजा के गढ़ के पीछे स्थित है

इस मंदिर की स्थापना 1885 में की गई थी

यहां राधा कृष्ण की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं

सूर्य मंदिर (बंडू)

रांची-टाटा मार्ग पर बुंडू के नजदीक इस मंदिर की स्थापना की गई है

यह मंदिर सूर्य के रथ की आकृति में बनाया गया है

इसका निर्माण संस्कृति-विहार, रांची नामक एक संस्था ने किया है

मंदिर की खूबसूरती के संबंध में स्थानीय साहित्यकारों ने इसे 'पत्थर पर लिखी कविता' कहा है

बेनीसागर का शिव मंदिर (पश्चिमी सिंहभूम

इस मंदिर का निर्माण काल 602 से 625 के बीच बताया जाता है

संभवत:गौड़ शासक शशांक द्वारा इस मंदिर का निर्माण हुआ था

यहां से छठी शताब्दी की 33 छोटी-बड़ी मूर्तियां मिली हैं, जिसमें हनुमान, गणेश और दुर्गा की प्रतिमाएं प्रमुख है

शिवलिंग के साथ शिलालेख भी यहां से प्राप्त हुए हैं

उग्रतारा मंदिर नगर

यह मंदिर लातेहार जिला के चंदवा प्रखंड मुख्यालय से लगभग 9 किलोमीटर दूर पर नगर गांव (मंदाकिनी पहाड़) में अवस्थित है

इस मंदिर की प्रसिद्ध एक सिद्ध तंत्रपीठ के रूप में दूर-दूर तक व्याप्त है

मंदिर में लगभग 2 किलोमीटर दूर पश्चिम की ओर पहाड़ी पर एक मजार है

यह मजार मदारशाह के मजार के नाम से प्रसिद्ध है

काली कुल की देवी उग्रतारा और श्री कुल की देवी लक्ष्मी का एक ही स्थान पर स्थापित होना इस मंदिर की मुख्य विशेषता है



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Friday, January 1, 2021

Dhoklo shohor shashan vyavastha (ढोकलो सोहोर शासन व्यवस्था)

Dhoklo shohor shashan vyavastha

खड़िया झारखंड की एक प्रमुख जनजाति है

ढोकलो सोहोर शासन व्यवस्था को ही खड़िया शासन व्यवस्था भी कहा जाता है 

यह प्रोटो ऑस्ट्रोलॉयड से सम्बन्ध रखती है

इनकी भाषा खड़िया है

जिसमें मुण्डारी,उरांव ,तथा आर्य भाषा के शब्द मिलते है इस जाति के लोग झारखंड में गुमला ,सिमडेगा तथा रांची ,उड़ीसा ,छत्तीसगढ़ राज्य में फैले हुए है 

झारखण्ड में ज़्यादातर लोग बीरु क्षेत्र सिमडेगा से हैं

खड़िया भाषा में ढोकलो का अर्थ -बैठक और सोहोर का अर्थ - अध्यक्ष 

Dhoklo shohor shashan vyavastha

इनका उद्गम स्थान रो:जंग बताया जाता है

1934-35 ईस्वी के आस -पास जब समस्त आदिवासी समाज शिक्षा के विकास के साथ जाग्रत हो रहा था, लगभग इसी समय खड़िया जाति के अग्रणी लोगों के द्वारा भी अपने समाज को संगठित करने,सशक्त बनाने हेतु अखिल भारतीय महासभा का गठन किया गया,जिसे ढोकलो के नाम से जाना जाता है।  

खड़िया लोगों में किसी शबर गांव के सभी निवासी एक गोत्र के होते हैं

जो ढोकलो का सभापति जो संपूर्ण खड़िया समाज का राजा होता है 'ढोकलो सोहोर' कहलाता है।

ढोकलो में सभी क्षेत्र के प्रमुख प्रतिनिधि ,महतो ,पाहन, करटाहा इकठ्ठा होते हैं, इस सभा में ' ढोकलो सोहोर' का चुनाव खड़िया जनजाति के लोगों द्वारा करते हैं

इनका कार्यकाल 3 वर्षों के लिए होता है

खड़िया तीन प्रकार के होते है 

1) पहाड़ी खड़िया या शबर खड़िया

2) दूध खड़िया,

3) ढेलकी  खड़िया

तीनों के स्वशासन के पद नामों में कुछ अंतर है। इनका ग्राम पंचायत अपने ढंग का होता है। 

पहाड़ी खड़िया 

(क) डंडिया : - पहाड़ी खड़िया गांव के प्रधान या शासक को डंडिया कहा जाता है

(ख) डिहुरी : -पहाड़ी खड़िया गांव के दूसरे प्रधानमंत्री को डिहुरी कहते हैं, यही गांव का पुजारी होता हैयह पूजा-पाठ, शादी-विवाह तथा पर्व-त्योहारों में मुख्य भूमिका निभाता है साथ ही यह डंडिया का सहयोगी भी रहता है

➤ दो से तीन दूध खड़िया और डेलकी खड़िया : - इन दोनों प्रकार के खड़िया गांवों  के प्रशासक या प्रधान को ढ़ोकलो शोहोर कहते हैं 

(ग) ढ़ोकलो सोहोर का अर्थ है :-  फा.डॉ.निकोलस टेटे  ने अपने शब्द खड़िया शब्द में कोष में 'सभापति' बताया है 

ग्राम सभा या ग्राम पंचायत (स्वशासन) के अध्यक्ष को भी ढोकलो सोहोर कहते हैं

यही ग्राम सभा का संचालन करता है तथा आगत मामलों का निपटारा करता है 

खड़िया स्वशासन के निम्न पद होते हैं

(1) महतो :- परंपरागत रूप से जिन लोगों ने गाँव बसाया था उन्हें महतो कह कर संबोधित किया जाता है 

 महतो को गांव का मुख्य व्यक्ति माना जाता है यह पद सामान्यत: वशांनुगत होता है 

 गाँव वालो की सहमति से महतो को बदला जा सकता है  

(2) करटाहा :- प्रत्येक खड़िया पारंपरिक गांव में करटाहा होता है 

20-25 गांवों  के अनुभवी लोग मिलकर पंचायत में गांव के सुयोग्य व्यक्ति को करटाहा चुनते हैं

इमानदारी, न्यायी, निष्पक्ष, बुद्धिमान, सामाजिक-सांस्कृतिक  विधानों को जानने वालों को ही करटाहा चुना जाता है

यह अवनैतिक होता है परंतु समाज में उसका मान-सम्मान होता है

सामाजिक कार्य करने वालों को दंड देना करटाहा का कार्य है, यह वंशानुगत नहीं होता है 

(3) रेड :- करटाहा से बड़ा रेड का होता है 

(4) परगना का राजा  :- रेड से ऊपर का पद परगना के खड़ियाओं के राजा का पद होता है 

 ग्राम-पंचायत के शासन, न्याय तथा अन्य मामले देखने का अधिकार इसे प्राप्त होता है 

(5) खड़िया राजा  :- परगना से ऊपर का पद खड़िया राजा का होता है यह पुरे खड़िया महासभा का सर्वोच्च सभापति होता है

इसको ही खड़िया राजा कहते है इसका अंतिम निर्णय होता है

(6) लिखाकड़ (सचिव या मंत्री)  :- खड़िया राजा के सचिव या मंत्री होते हैं जो राजा के सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक आदि कार्यों में सहयोग देते हैं

(7) तिंजाडकड़ या खजांची :- यह खड़िया राजा के आय -व्यय का विवरण रखता है 

(8) देवान या सलाहकार  :- यह भी खड़िया राजा का सलाहकार होता है 

खड़िया राजा, लिखवाड़ और देवान की सहायता से मामलों का निपटारा करता है।आवश्यकता पड़ने पर अपराधी को आर्थिक दंड भी दिया जाता है 

इस दंड से प्राप्त राशि से कुछ रकम अपने पदाधिकारियों, खजांची, लिखाकड़, देवान आदि को खड़िया राजा देता है,पर यह कभी भी वेतन की भांति नहीं होता। बाकी पैसे समाज या पंचायत को खस्सी भोज देने में लगाया जाता है 

(9) कालो या पाहन  :- प्रत्येक दूध खड़िया और डेलकी खड़िया गांव का एक पुजारी होता है उसे कालो या पाहन कहते हैं 

कालो धार्मिक कार्य करते हैं जो एक पुरोहित करता है हर गोत्र का एक कालो या पाहन होता है 

यह वंशानुगत होता है  

प्रायः बड़े खड़िया गांव के कालो को पाहन कहते हैं  

कालो तथा पाहन  दोनों परंपरागत होते हैं  

खड़िया समाज में भी पाहन (पुजारी) को गांव की ओर से पहनई जमीन दी जाती है

इसकी उपज से वह धार्मिक कार्यों का खर्च निकलता है

पाहन या कालो  के लिए मुंडा, उरांव में भी पहनई जमीन दी जाती है 

कालो या पाहन के वंश ना होने पर नए का चुनाव पारंपारिक पंचायत करती है 

मूलतः ढोकलाे  शोहोर  शब्द खड़िया महासभा के सभापति या अध्यक्ष के लिए प्रयोग किया जाता है 

परंतु अब खड़िया राजा के लिए ढोकलाे सोहोर का प्रयोग होने लगा है 

खड़िया समाज के नीचे के पदाधिकारी सभी खड़िया राजा या ढोकलाे  शोहोर के प्रति उत्तरदाई होते हैं

गांव की हर स्थिति की सूचना इसे देते हैं और इनकी निर्देश पर शासन या न्याय करते हैं 

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Wednesday, December 30, 2020

Jharkhand Ki Bhasha Aur Boli(झारखण्ड की भाषा और बोली)

Jharkhand Ki Bhasha Aur Boli

झारखण्ड की भाषा और बोली

➤भाषा और बोली के बीच विभाजन की रेखा बहुत ही पतली होती है

भाषा का क्षेत्र विस्तृत होता है, जिसमें साहित्यिक रचनाएं होती है

जबकि बोली का क्षेत्र छोटा होता है इसमें साहित्यिक रचनाएं नहीं होती

भाषा के आधार पर झारखंड की भाषाओं एवं बोलियों  को 3 वर्गों में बांटा जा सकता है

1) मुंडारी भाषा (आस्ट्रो एशियाटिक) परिवार

2) द्रविढ़ (द्रविड़ियन) भाषा परिवार और

3) इंडो-आर्यन भाषा परिवार

1) मुंडारी भाषा (आस्ट्रो एशियाटिक) परिवार

इस भाषा परिवार में संताली, मुंडारी, हो, खड़िया, करमाली, भूमिज,  महाली, बिरजिया, असुरी, कोरबा आदि भाषाएं शामिल है 

मुंडा भाषा परिवार की ये  बोलियां रांची,सिंहभूम , हजारीबाग आदि क्षेत्र में यहां की जनजातियां द्वारा बोली जाती है

 संथाली भाषा को होड़ -रोड़ अर्थात होड़  लोगों की बोली भी कहा जाता है 

➤यह भाषा संख्या की दृस्टि से झारखण्ड में बोली जाने वाली द्वितीय भाषा है 

➤42 वें संविधान संशोधन 2003 के द्वारा सविंधान की आठवीं अनुसूची में इस भाषा को स्थान दिया गया है 

➤यह भाषा सविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान पाने वाली  झारखंड की एकमात्र क्षेत्रीय भाषा है 

इसके दो रूप मिलते हैं:- शुद्ध संथाली एवं मिश्रित संथाली 

मिश्रित संथाली में बांग्ला, उड़िया, मैथिली आदि का मिश्रण मिलता है

मुंडारी :- मुंडा जनजाति की भाषा का नाम मुण्डारी है ,जिसके चार रूप मिलते हैं 

➤खूटी और मुरहू क्षेत्र के पूर्वी अंचलों में बोली जाने वाली मुंडारी को हसद मुंडारी कहा जाता हैं 

➤तामड़ के आस-पास के क्षेत्र में बोली जाने वाली मुंडारी तमड़िया मुंडारी कहलाती है

➤केर मुण्डारी राँच के आस-पास के के क्षेत्रों में बोली जाने वाली मुंडारी भाषा है 

नागपुरी भाषा मिश्रित मुंडारी को नगूरी मुंडारी कहा जाता है

➤यह तोरपा,कर्रा ,कोलेबिरा  वानों आदि क्षेत्रों में बोली जाती हैं

हो :-यह हो जनजाति की भाषा का नाम है इस भाषा की अपनी शब्दावली एवं उच्चारण पद्धति है। अपने में ही सीमित रहने के कारण इस भाषा का विकास अधिक नहीं हो सका है 

खगड़िया :- खगड़िया जनजाति की भाषा का नाम खड़िया ही है

2) द्रविड़ (द्रविड़ियन) भाषा परिवार

इस भाषा परिवार में मुख्यतः कुड़ुख (उरांव ) ,मालतो (सौरिया , पहाड़िया, व माल पहाड़िया) आदि शामिल है 

➤द्रविड़ भाषा परिवार की कुड़ुख बोली उरांव जनजाति के लोगों में प्रचलित है इस भाषा ने बड़ी उदारता से अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण किया है

कुड़ुख भाषा का ही  एक अन्य रूप मालतो है

➤मालतो को सौरिया  पहाड़ियां,गोंडी  तथा माल पहाड़िया आदि जनजातियां बोलचाल के रूप में प्रयोग करती हैं 

3) इंडो-आर्यन भाषा परिवार

हिंदी, खोरठा, नागपुरी,कुड़माली, पंचपरगनिया,आदि इस भाषा परिवार में आती है। इसे सदानी भाषा भी कहते हैं

हिंदी :- झारखंड की सर्वप्रमुख भाषा हिंदी है इससे झारखंड की राजभाषा होने का गौरव प्राप्त है यहां हिंदी बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है

खोरठा :- इसका  संबंध प्राचीनी खरोष्ठी लिपि से जोड़ा जाता है यह मागधी  प्राकृत से विकसित एक भाषा है 

➤यह हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद, रांची जिले के उत्तरी भाग, संथाल परगना, एवं पलामू के उत्तर -पूर्वी भागों में बोली जाती है

इस भाषा के अंतर्गत रंगड़िया ,देसवाली, खटाही, खटाई,खोटहि और गोलवारी बोलियां आती है

पंचपरगनिया:- पंचपरगना क्षेत्र जिसके अन्तर्गत तमाड़ ,बुंडू ,राहे ,सोनाहातु और सिल्ली क्षेत्र आते हैं में प्रचलित भाषा पंच परगनिया कहलाती है 

कुड़माली :- मूल रूप से कुर्मी जाति की भाषा होने के कारण इसका नाम कुड़माली पड़ा 

यह रांची, हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद, सिंहभूम एवं संथाल परगना में बोली जाती है 

नागपुरी :- यह भी मागधी  प्राकृत  से विकसित एक भाषा है संपर्क भाषा के रूप में पूरे झारखंड में यह प्रचलित है 

इसे नागवंशी राजाओं की मातृभाषा होने का गौरव प्राप्त है इसे सादरी /गवारी  के नाम से भी जाना जाता है

इन भाषाओं के अतिरिक्त झारखंड में भोजपुरी, मैथिली,मगही ,अंगिका ,बांग्ला, उर्दू, उड़िया, जिप्सी,   आदि भाषाएं बोली जाती हैं 

➤राज्य के राँची तथा पलामू क्षेत्र के साथ ही अन्य क्षेत्रों में भोजपुरी में बात-चीत करने वाले झारखंड- वासियों तथा बिहारियों की एक बड़ी संख्या विद्यमान है

झारखंड राज्य में प्रचलित भोजपुरी को दो वर्गों में विभाजित किया गया है

1)आदर्श भोजपुरी :- यह मुख्यत: पलामू के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित है 

2) नागपुरिया, सादरी एवं सदानी, भोजपुरी :- इसका व्यवहार छोटानागपुर के गैर आदिवासी क्षेत्रों में होता है 

झारखंड राज्य के हजारीबाग, चतरा, कोडरमा, पूर्वी पलामू, रांची एवं सिंहभूम  में बोल-चाल की भाषा के रूप में मगही का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है

भाषा विज्ञानी डॉ जॉर्ज ग्रियर्सन ने मगही बोली को दो श्रेणी में विभक्त किया है

1)आदर्श मगही :- यह मुख्य रूप से हजारीबाग एवं पूर्वी पलामू में बोली जाती है 

2) पूर्वी मगही :- यह रांची, हजारीबाग आदि क्षेत्रों में बोली जाती है 

रांची के कुछ क्षेत्रों में बोली जाने वाली पूर्वी मगही के रूप को पचपरगनिया भी कहा जाता है

अंगिका प्राचीन मैथिली का वर्तमान स्वरूप समझी जाने वाली भाषा है

यह मुख्यत: गोड्डा, दुमका, साहिबगंज, देवघर आदि क्षेत्रों में प्रचलित है छठी शताब्दी के ग्रंथ ललित विस्तार की रचना इसी भाषा में की गई थी

जिप्सी झारखंड में छिट-पुट बोली जाने वाली बोली है या नट, मलाट तथा गुलगुलिया जातियों की संपर्क बोली है

उर्दू को झारखंड के द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया गया है

बांग्ला झारखंड राज्य की तीसरी जाने वाली भाषा हैउत्तरी 

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Tuesday, December 29, 2020

Jharkhand Ke Pramukh Patra Patrikaye (झारखंड के प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं)

Jharkhand Ke Pramukh Patra Patrikaye

झारखंड के प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं

घर बंधु:
1880 में  एनाट रॉड के संपादन में जर्मन मिशन रांची द्वारा ईसाईं दर्शन व समाचार के प्रचार के उद्देश्य से प्रकाशित

आर्यावर्त :- बालकृष्ण सहाय के संपादन में आर्य प्रतिनिधि सभा, रांची द्वारा झारखंड पर केंद्रित 1 अप्रैल 1898 से 11 नवंबर 1950 तक प्रकाशित


सोशल सर्जन :- 1918 में सुकुमार हलधर के संपादन में रांची से समाज सुधार, राष्ट्रीय स्वतंत्रता एवं समाचार के प्रसार के लिए आरंभ किया गया 

मैन  इन इंडिया :- 1929 में शरतचंद्र राय के संपादन में चर्च रोड रांची से मुंडा, उरांव ,खड़िया,असुर, बिरहोर आदि आदिवासी समुदायों के मानविकी अध्ययन पर प्रकाशित इसका प्रकाशन आज भी जारी है 

छोटानागपुर पत्रिका :- 1924 में  संपादक रामराज  शर्मा द्वारा अपर बाजार रांची से प्रकाशित  

इस पत्रिका में झारखंड की समस्याओं एवं आदिवासी भाषाओं में आदिवासी लेखकों द्वारा लिखे आलेखों को प्रमुखता दी गई

झारखंड :- बड़ाईक ईश्वरी प्रसाद सिंह के संपादन में गुमला से नवंबर 1937 में प्रकाशित झारखंड आंदोलन की भूमिका महत्वपूर्ण पत्रिका

सत्संग :- मुलत:ईसाई धर्म पत्रिका, 1937 से 1954 तक फादर पीटर शांति नवरंगी के संपादन में निकली, जिसमें छोटानागपुर का इतिहास धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ

आदिवासी पाक्षिक:-बंदीराम उरांव और जुलियस तिग्गा के संयुक्त संपादन में आदिवासी महासभा द्वारा प्रकाशित (जयपाल सिंह मुंडा के आदिवासी महासभा में प्रवेश के अवसर पर प्रकाशित)

आदिवासी सकाम :- जयपाल सिंह मुंडा के संपादन में प्रकाशित महासभा का मुख्य पत्र। हिंदी, बंगला और अंग्रेजी सहित सभी झारखंडी भाषाओं के आलेखों को इसमें प्रमुख स्थान मिला

अबुआ झारखंड :- 14 दिसंबर 1947 से इग्नेस कुजूर एवं आगे चलकर  इग्नेस बैक के संपादन में दासों  प्रेस ,पत्थरकुदवा, रांची से निकलना शुरू हुआ, जो 1950 से झारखंड पार्टी का मुख्यपत्र बन गया

आदिवासी :- पहले चार अंक नागपुरी में निकले बाद में यह हिंदी में प्रकाशित होने लगा, परंतु इसमें लगातार झारखंडी  भाषाओं की रचनाएँ  छपती रही

संपादक -राधाकृष्ण फिलहाल यह जनसंपर्क विभाग झारखंड सरकार की पत्रिका है (प्रकाशन वर्ष- 1947)

होड़ संवाद :- डोमन साहू समीर के संपादन में 1947 से निरंतर प्रकाशित संथाली भाषा साहित्य की पत्रिका 

संप्रति इसका संपादन बाबूलाल मुर्मू कर रहे हैं 

राष्ट्रीय भाषा :- झारखंड का प्रथम हिंदी दैनिक पत्र राष्ट्रीय भाषा का प्रकाशन 1950 में रांची से हुआ प्रकाशक- देवी प्रसाद मित्र, संपादक बटुक देव शर्मा 

जगर साड़ा :- सुशील कुमार बागे द्वारा 1953 में रांची से संपादित-प्रकाशित मुंडारी पत्रिका 

नागपुरी :- अप्रैल 1961 में प्रकाशित नागपुरी पत्रिका, संपादक जोगेंद्र नाथ तिवारी

धरैया गुइठ:-   ईसाई धर्म तथा सादरी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए आदिवासी स्टूडेंट शिलांग की ओर से 1961 में बाखला जेफ और जोंस क्रिकेटर के संपादन में इसका प्रकाशन हुआ

रांची एक्सप्रेस :- यह समाचार पत्र बलवीर दत्त के संपादन में पहले सप्ताहिक और बाद में दैनिक (अगस्त 1976 में) रूप में प्रकाशित, प्रकाशन वर्ष 15 अगस्त, 1963 

तितकी :-  1963 में बीएन ओहदार एवं झारपात के संपादन में खोरठा भाषा साहित्य की निरंतर प्रकाशित पत्रिका 

नागपुरी महिनवारी कागज :- नागपुरी भाषा परिषद रांची द्वारा 1964 में योगेंद्र नाथ तिवारी के संपादन में प्रकाशित

नागपुरिया समाचार :- नागपुरी भाषा की पत्रिका 1966 में स्थापना, संपादक लक्ष्मी नारायण थे 

झारखंड समाचार:- अबुआ झारखंड की तरह ही झारखंड आंदोलन की पत्रिका 9 जून, 1968 से, इग्नेस कुजूर के संपादन में प्रकाशित

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Monday, December 28, 2020

Jharkhand Ke Mele (झारखंड के मेले)

झारखंड के मेले

(Jharkhand Ke Mele)

झारखंड के मेले

➤झारखंड में मेलों का काफी महत्व है यहां प्राय: मेले किसी ना किसी पर्व या त्योहार के अवसर पर तीर्थ स्थानों पर लगते हैं
 

झारखंड के कुछ प्रमुख मेले निम्नांकित हैं

हिजला मेला

यह मेला दुमका के निकट मयूराक्षी नदी के किनारे लगता है

यह संथाल जनजाति का एक मुख्य ऐतिहासिक मेला है 

बसंत ऋतु के कदमों की आहट के साथ शुरू होने वाला यह मेला 1 सप्ताह तक चलता है

संथाल परगना के तत्कालीन अंग्रेज उपायुक्त कास्टेयर्स ने 1890 ईसवी में इस मेले की शुरुआत की थी

हिजला शब्द 'हिजलोपाइट' नामक खनिज का संक्षिप्त  रूप है ,जो संथाल परगना की पहाड़ियों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है 

श्रावणी मेला

प्रत्येक वर्ष श्रावण महीने में देवघर में लगने वाला यह मेला विश्व का सबसे बड़ा मानव मेला है

प्रतिवर्ष श्रावण माह प्रारंभ होते ही 1 माह तक यहां भारत से ही नहीं बल्कि पड़ोसी देशों से भी शिव भक्त जल चढ़ाने आते हैं

विश्व का एकमात्र ऐसा मेला है जहां सभी एक ही रंग के वस्त्र पहन कर आते हैं

रथ यात्रा मेला 

रांची शहर में स्थित स्वामी जगन्नाथ का ऐतिहासिक मंदिर है 

प्रतिवर्ष यहां आषाढ़ शुल्क द्वितीय को रथयात्रा व एकादशी को धुरती रथयात्रा मेला लगता है

नरसिंह स्थान मेला 

हजारीबाग से करीब 5 किलोमीटर दक्षिण में लगने वाला नरसिंह स्थान मेला के नाम से प्रसिद्ध यह मेला एक बहुआयामी मेला है

यहां मेला कार्तिक पूर्णिमा को लगता है

यह ईश-दर्शन भी है, पिकनिक भी है, मनोरंजन भी है, प्रदर्शन भी है और मिलन-संपर्क का भी अवसर भी  है 

यह मेला मुख्यत: शहरी मेला माना जाता है, क्योंकि इस मेले में इस मेले में प्रया: शहर की स्त्री-पुरुष युवा वर्ग के एवं बच्चों की उपस्थिति अधिक रहती है

रामरेखा धाम मेला

सिमडेगा जिले में स्थित रामरेखा धाम में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर 3 दिनों का भव्य मेला लगता है 

➤किवदंती है कि भगवान श्रीराम ने दंडकारण्य जाने के क्रम में रामरेखा पहाड़ पर कुछ दिन बिताए थे  

इस मेले में झारखंड के अलावा मध्य प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल से काफी संख्या में तीर्थ यात्रियों और दुकानदारों का आगमन होता है  

नवमी डोल मेला 

रांची के नजदीक टाटीसिल्वे में हर वर्ष होली के ठीक 9 दिन बाद एक बहुत बड़ा मेला लगता है 

यह मेला नवमी डोल मेला के नाम से प्रसिद्ध है  

यहां भगवान कृष्ण और राधा की प्रतिमाओं का पूजन किया जाता है  

धार्मिक परंपरा अनुसार राधा और कृष्ण की मूर्तियां को एक डोली में झुलाया जाता है 

झारखंड के आदिवासियों की प्राचीन संस्कृति और परंपराओं का स्पष्ट रूप आज भी सैकड़ों वर्ष पुराने इस मेले में देखा जा सकता है 

सूर्य कुंड मेला  

हजारीबाग जिले के बरकट्ठा प्रखंड के बगोदर से 2. 5  किलोमीटर दूर सूर्यकुंड नामक स्थान पर मकर संक्रांति के दिन लगने वाला यह मेला 10 दिनों तक चलता है  

जिसे सूर्य कुंड मेला के नाम से जाना जाता है 

सूर्यकुंड की विशेषता है कि भारत के सभी गर्म जल स्रोतों में किस का तापमान सर्वाधिक है 

बढ़ई मेला  

देवघर जिला के दक्षिण-पश्चिम छोर पर बसे बुढ़ई ग्राम स्थित  बुढ़ई  पहाड़ पर सैकड़ों वर्षो से प्रत्येक वर्ष अगहन  माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मेला लगता है  

यह तिथि यहां नवान पर्व के रूप में मनाई जाती है 

नवान पर्व के अवसर पर नवान कर चुकाने के बाद लोग हजारों की तादाद में प्रसिद्ध बुढ़ई पहाड़ स्थित तालाब के पास बुढ़ेश्वरी देवी के मंदिर में जाते हैं। जहां 3 से 5 दिनों तक मेला लगता है 

गांधी मेला

प्रत्येक वर्ष गणतंत्र दिवस पर सिमडेगा जिले में 1 सप्ताह के लिए गांधी मेला लगता है

इस ऐतिहासिक मेले में विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी विभागों द्वारा सामूहिक रूप से एक मनमोहक प्रदर्शनी लगाई जाती है जिससे विकास मेला कहा जाता है 

मंडा मेला

प्रत्येक वर्ष वैशाख, जेष्ठ , एवं आषाढ़  महीने में हजारीबाग, बोकारो तथा रामगढ़ के आस-पास के गांव में आग पर चलने वाला यह पर्व मनाया जाता है

अंगारों की आग पर लोग नंगे पांव श्रद्धापूर्वक चलते हैं और अपनी साधना को सफल बनाते हैं 

जिस रात आग पर चला जाता है उस रात को जागरण कहा जाता है दूसरे दिन सुबह मंडा मेला लगता है

हथिमा पत्थर मेला 

बोकारो जिले के फुसरो  के निकट हाथी की आकृति वाला चट्टान है 

लोक आस्था की अभिव्यक्ति स्वरूप हर वर्ष मकर सक्रांति के अवसर पर यहां सामूहिक स्नान की परंपरा है इस कारण विशाल मेला लगता है

बिंदु धाम मेला

साहिबगंज से 55 किलोमीटर दूर स्थित बिंदुधाम शक्तिपीठ में प्रत्येक वर्ष चैत महीने में रामनवमी के दिन 1 सप्ताह का आकर्षक मेला लगता है 

यहां मां विंध्यवासिनी का 3 शक्तिपीठ है


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Sunday, December 27, 2020

Coins in Ancient & Medieval India: Gupta Age Coin

Coins in Ancient & Medieval India



The word Coin is procured from the Latin word Cuneus. It is believed that the first recorded use of coin was in China & Greece around 700 BC, and in India in the 6th century BC.

The study of coins and medallions = Numismatics.

Coins Issued in Gupta Age:

  • The Gupta age (319 AD-550 AD) marked a period of a great Hindu revival.

  • The Gupta coins were made of gold, although they issued silver and copper coins too.

  • Silver coins were issued only after Chandragupta II overthrew the Western Satraps.


  • On one side of these coins, the king can be found standing and making oblations before an altar, playing the veena, performing Ashvamedha, riding a horse or an elephant, slaying a lion or a tiger or a rhinoceros with a sword or bow, or sitting on a couch.

  • On the other side was the Goddess Lakshmi seated on a throne or a lotus seal, or the figure of the queen herself.

  • The inscriptions on the coins were all in Sanskrit (Brahmi script) for the first time in the history of coins.

  • Gupta rulers issued coins depicting the emperors not only in martial activities like hunting lions/tigers, posing with weapons, etc. but also in leisurely activities like playing the Veena, with the reverse side of the coin having images of Goddesses Lakshmi, Durga, Ganga, Garuda, and Kartikeya.
Fig: King & Goddess Lakshmi




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