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Sunday, May 9, 2021

Tilka Manjhi Andolan1783-85 (तिलका आंदोलन 1783-85)

Tilka Manjhi Andolan(1783-85)

➧ तिलका आंदोलन की शुरुआत 1783 ईस्वी में तिलका मांझी और उनके समर्थकों द्वारा की गई थी 

➧ यह आंदोलन अंग्रेजों के दमन व फूट डालो की नीति के विरोध में था तथा अपने जमीन पर अधिकार प्राप्त करने हेतु किया गया 


➧ इसका मुख्य उद्देश्य था :-

(i) आदिवासी अधिकारों की रक्षा करना

(ii) अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ना 

(iii) सामंतवाद से मुक्ति प्राप्त करना 

➧ इस आंदोलन का प्रमुख केंद्र वनचरीजोर था, जो वर्तमान समय में भागलपुर के नाम से जाना जाता है

 झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में इस युद्ध का व्यापक असर पड़ा। 

 तिलकामांझी उर्फ़ जाबरा पहाड़िया ने इस आंदोलन को जन आंदोलन का स्वरूप दिया और अपने आंदोलन के प्रचार-प्रसार हेतु 'साल के पत्तों' का प्रयोग किया।

➧ इस आंदोलन के दौरान आपसी एकता को मजबूत बनाए रखने पर विशेष बल दिया गया

➧ इस विद्रोह में महिलाओं ने भी भाग लिया था

 इस विद्रोह के दौरान 13 जनवरी, 1784 को तिलका मांझी ने तीर मारकर क्लीवलैंड की हत्या कर दी

➧ क्लीवलैंड की हत्या के उपरांत अंग्रेज अधिकारी आयरकूट ने तिलका मांझी को पकड़ने हेतु व्यापक अभियान चलाया।

➧ अंग्रेजों द्वारा तिलका मांझी के खिलाफ कार्रवाई किए जाने पर तिलकामांझी ने छापामारी युद्ध (गोरिल्ला युद्ध) का प्रयोग किया।

 छापामार युद्ध की शुरुआत तिलका मांझी द्वारा सुल्तानगंज पहाड़ी से की गई थी। 

➧ संसाधनों की कमी होने के कारण तिलका मांझी कमजोर पड़ गया तथा अंग्रेजों ने उसे धोखे में पकड़ लिया।

➧ पहाड़िया सरदार जउराह ने तिलकामांझी को पकड़वाने में अंग्रेजों का सहयोग किया।

➧ 1785 ईस्वी में अंग्रेजों द्वारा तिलका मांझी को गिरफ्तार कर लिया गया

➧ तिलका मांझी को 1785 ईस्वी में भागलपुर में बरगद के पेड़ से फांसी पर लटका दिया गया

➧ इस स्थान को उनकी याद में बाबा तिलका मांझी चौक के नाम से जाना जाता है

➧ झारखंड के स्वतंत्रता सेनानियों में सर्वप्रथम शहीद होने वाले सेनानी तिलका मांझी हैं 

➧ तिलका मांझी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने वाले प्रथम आदिवासी थे तथा इनके आंदोलन में महिलाओं ने भी महत्वपूर्ण सहभागिता दर्ज की थी

➧ भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम तिलका मांझी के नाम पर रखा गया है 

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Saturday, May 8, 2021

Sardari Andolan-1858-95 सरदारी आंदोलन (1858-95)

Sardari Andolan(1858-95)

➧ इस आंदोलन को ' मुल्की व मिल्की (मातृभूमि व जमीन) का आंदोलन' भी कहा जाता है

➧ 1931-32 के कोल विद्रोह के समय कोल सरदार असम के चाय बागानों में काम करने हेतु चले आए थे

काम करने के बाद जब वे अपने गांव लौटे तो पाया कि उनकी जमीनों को दूसरे लोगों ने हड़प लिया है तथा वे जमीन वापस करने से इंकार कर रहे थे

➧ इस हड़पे गए जमीन को वापस पाने हेतु कोल सरदारों ने लगभग 40 वर्षों तक आंदोलन किया। साथ ही बलात श्रम लागू करना तथा बिचौलियों द्वारा गैर-कानूनी ढंग से किराये में वृद्धि करना भी इस आंदोलन के कारणों में शामिल था

➧ इस आंदोलन में कोल सरदारों को उरांव व मुंडा जनजाति का भी समर्थन प्राप्त हुआ

➧ अलग-अलग उद्देश्यों के आधार पर इस आंदोलन के तीन चरण परिलक्षित होते हैं:- 

(i) प्रथम चरण भूमि आंदोलन के रूप में (1858-81 ईस्वी तक), 

(ii) द्वितीय चरण पुनर्स्थापना आंदोलन के रूप में 1881-90 ईसवी तक)

(iii) तथा तीसरा चरण राजनैतिक आंदोलन के रूप में (1890-95 ईस्वी तक) 

(i) प्रथम चरण (1858-81 ई0)

➧ आंदोलन का यह चरण अपनी हड़पी गयी भूमि को वापस पाने से संबंधित था अतः इसे भूमि आंदोलन कहा जाता है

यह आंदोलन छोटानागपुर खास से शुरू हुआ दोयसा, खुखरा, सोनपुर और वासिया इसके प्रमुख केंद्र थे

➧ इस आंदोलन का तेजी से प्रसार होने के परिणाम स्वरुप सरकार द्वारा भुईंहरी (उरांव की जमीन) काश्त के सर्वेक्षण हेतु लोकनाथ को जिम्मेदारी प्रदान की गयी 

➧ इस सर्वेक्षण के आधार पर सरकार ने भूमि की पुनः वापसी हेतु 1869 ईस्वी में छोटानागपुर टेन्यूर्स एक्ट लागु किया इस आंदोलन में पिछले 20 वर्षों में रैयतों से छीनी गई भुईंहरी व मझियास भूमि (जमींदारों की भूमि) को वापस लौटाने का प्रावधान था। 

➧ इस क़ानून को लागू करते हुए 1869-80 तक भूमि वापसी की प्रकिया संचालित रही जिससे कई गावों के रैयतों को अपनी जमीनें वापस मिल गयीं। परंतु राजहंस (राजाओं की जमीन) कोड़कर (सदनों की जमीन) व खुंटकट्टी (मुण्डाओं की जमीन) की बंदोबस्ती का प्रावधान इस कानून में नहीं होने के कारण सरदारी लोग पूर्णत: संतुष्ट नहीं हो सके। 

(ii) द्वितीय चरण(1881-90 ईस्वी)

 आंदोलन के इस चरण का मूल उद्देश्य अपने पारंपरिक मूल्यों को फिर से स्थापित करना था अतः इससे पुनर्स्थापना आंदोलन कहा जाता है 

(iii) तीसरा चरण (1890-95 ईस्वी) 

इस चरण में आंदोलन का स्वरूप राजनीतिक हो गया

 आदिवासियों ने अपनी हड़पी गयी जमीनें वापस पाने हेतु विभिन्न इसाई मिशनरियों, वकीलों आदि से बार-बार सहायता मांगी। परंतु सहायता के नाम पर इन्हें हर बार झूठा आश्वासन दिया गया। परिणामत: आदिवासी इनसे चिढ़ने लगे

➧ ब्रिटिश शासन द्वारा दिकुओं व जमींदारों का साथ देने के कारण आदिवासियों का अंग्रेजी सरकार पर भी भरोसा नहीं रहा 

➧ परिणामत: आदिवासियों ने 1892 ईस्वी मिशनरियों और ठेकेदारों को मारने का निर्णय लिया। परंतु मजबूत नेतृत्व के अभाव में वे इस कार्य में सफल नहीं हो सके

➧ बाद में बिरसा मुंडा का सफल नेतृत्व की चर्चा होने के बाद सरदारी आंदोलन का विलय बिरसा आंदोलन हमें हो गया

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Friday, May 7, 2021

Kol Vidroh 1831-32 (कोल विद्रोह 1831-1832)

Kol Vidroh (1831-32) 

➧ कोल विद्रोह झारखंड का प्रथम संगठित तथा व्यापक जनजातीय आंदोलन था।अतः झारखंड में हुए विभिन्न जनजातीय विद्रोह में इसका विशेष स्थान है। 

कोल विद्रोह 1831-1832

 इस विद्रोह के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे। 

(i) लगान की ऊंची दरें तथा लगान नहीं चुका पाने की स्थिति में भूमि से मालिकाना हक की समाप्ति।

(ii) अंग्रेजों द्वारा अफीम की खेती हेतु आदिवासियों को प्रताड़ित किया जाना।

(iii) जमींदारों और जागीरदारों द्वारा कोलों का अमानवीय शोषण और उत्पीड़न।

(iv) दिकुओं (अंग्रेजों द्वारा नियुक्त बाहरी गैर-आदिवासी कर्मचारी), ठेकेदारों व व्यापारियों द्वारा आदिवासियों का आर्थिक शोषण।

(v)अंग्रेजों द्वारा आरोपित विभिन्न प्रकार के कर (उदाहरण स्वरूप 1824 में हड़िया पर लगाया गया 'पतचुई' नामक कर) 

(vi) विभिन्न मामलों के निपटारे हेतु आदिवासियों के परंपरागत 'पहाड़ा पंचायत व्यवस्था' के स्थान पर अंग्रेजी कानून को लागू किया जाना।

➧ इस विद्रोह के प्रारंभ से पूर्व सोनपुर परगना के सिंदराय मानकी के 12 गांवों की जमीन छीनकर सिक्खों को दे दी गई तथा सिक्खों ने सिंगराई की दो बहनों का कर अपहरण कर उनकी इज्जत लूट ली

 इसी प्रकार सिंहभूम के बंदगांव में जफर अली नामक मुसलमान ने सुर्गा मुंडा की पत्नी का अपहरण कर इसकी इज्जत लूट ली

➧ इन घटनाओं के परिणाम स्वरुप सिंदराय मानकी और सुर्गा मुंडा के नेतृत्व में 700 आदिवासियों ने उन गांवों  पर हमला कर दिया जो सिंदराय मानकी से छीन लिए गये थे

➧ इस हमले की योजना बनाने हेतु तमाड़ के लंका गांव में एक सभा का आयोजन किया गया था जिसकी व्यवस्था बंदगांव के बिंदराई मानकी ने की थी

➧ इस हमले के दौरान विद्रोहियों ने जफर अली के गांव पर हमला कर दिया तथा जफर अली व उसके 10 आदिवासियों को मार डाला

➧ यह विद्रोह 1831 ईस्वी में प्रारंभ होने के अत्यंत तीव्रता से छोटानागपुर ख़ास, पलामू, सिंहभूम और मानभूम क्षेत्र तक प्रसारित हो गया 

➧ इस विद्रोह को मुंडा,  हो,  चेरो,  खरवार आदि जनजातियों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त था  

➧ हजारीबाग में बड़ी संख्या में अंग्रेज सेना की मौजूदगी के कारण यह क्षेत्र इस विद्रोह से पूर्णत: अछूता रहा 

➧ इस विद्रोह के प्रसार हेतु प्रतिक चिन्ह के रूप में तीर का प्रयोग किया गया 

➧ इस विद्रोह के प्रमुख नेता बुधु भगत (सिली निवासी) अपने भाई, पुत्र व डेढ़ सौ (150) साथियों के साथ विद्रोह के दौरान मारे गये। बुध्दू भगत को कैप्टन इम्पे ने मारा था

➧ अंग्रेज अधिकारी कैप्टन विलिंक्सन ने रामगढ़, बनारस, बैरकपुर, दानापुर तथा गोरखपुर की अंग्रेजी सेना की सहायता से इस विद्रोह का दमन करने का प्रयास किया 

➧ विभिन्न हथियारों और सुविधाओं से लैस अंग्रेजी सेना के विरुद्ध केवल तीर-धनुष के लैस विद्रोहियों ने 2 महीने तक डटकर अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया 

➧ इस विद्रोह को दबाने में पिठौरिया के तत्कालीन राजा जगतपाल सिंह ने अंग्रेज की मदद की थे जिसके बदले में तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बैटिंग ने उन्हें ₹313प्रतिमाह आजीवन पेंशन देने की घोषणा की

➧ 1832 ईस्वी में सिंदराय मानकी तथा सुर्गा मुंडा (बंदगांव, सिंहभूम निवासी) ने आत्मसमर्पण कर दिया जिसके पश्चात विद्रोह कमजोर पड़ गया

➧ इस विद्रोह के बाद छोटानागपुर क्षेत्र में बंगाल के सामान्य कानून के स्थान पर 1833 ईस्वी का रेगुलेशन-III  लागू किया गया

➧ साथ ही जंगलमहल जिला को समाप्त कर नन-रेगुलेशन प्रान्त के रूप में संगठित किया गया इसे बाद  में दक्षिण-पश्चिमी सीमा एजेंसी' का नाम दिया गया

➧ इस क्षेत्र के प्रशासन के संचालन की जिम्मेदारी गवर्नर जनरल के एजेंट के माध्यम से की जाने की व्यवस्था की गई तथा इसका पहला एजेंट थॉमस विलिंक्सन को बनाया गया 

➧ इस विद्रोह के बाद मुंडा-मानकी शासन प्रणाली को भी वित्तीय व् न्यायिक अधिकार भी प्रदान किए  

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Ramgarh Vidroh (रामगढ़ विद्रोह)

Ramgarh Vidroh

➧ हजारीबाग क्षेत्र में कंपनी को सबसे अधिक विरोध का सामना रामगढ़ राज्य की ओर से करना पड़ा।

➧ रामगढ़ का राजा मुकुंद सिंह शुरू से अंत तक अंग्रेजों का विरोध करता रहा 

➧ 25 अक्टूबर, 1772 को रामगढ़ राज्य पर दो दिशा की ओर से हमला कर दिया गया

 छोटानागपुर खास की ओर से कैप्टेन जैकब कैमक और इवांस दूसरी ओर से तेज सिंह ने मिलकर आक्रमण किया

Ramgarh Vidroh

 27-28 अक्टूबर को दोनों की सेना रामगढ़ पहुंची। रामगढ़ राजा मुकुंद सिंह को भागना पड़ा कमजोर स्थिति होने के कारण

 1774 ईस्वी में तेज सिंह को रामगढ़ का राजा घोषित किया गया

➧ मुकुंद सिंह के निष्कासन एवं तेजसिंह को राजा बनाए जाने के बाद भी वहां की स्थिति सामान्य नहीं हुईमुकुंद सिंह के अतिरिक्त उसके अनेक संबंधी भी अपनी खोई हुई शक्ति प्राप्त करने के लिए सक्रिय थे

➧ सितंबर 1774 ईसवी में तेज सिंह की मृत्यु हो गयी। इसके बाद उसका पुत्र पारसनाथ सिंह गद्दी पर बैठा

➧ मुकुंद सिंह अपने समर्थकों के साथ उस पर हमला करने की तैयारी में लगा हुआ था, परंतु अंग्रेजों के कारण उसे सफलता नहीं मिल रही थी

➧ 18 मार्च, 1778 ईस्वी को अंग्रेजी फौज ने मुकुंद सिंह की रानी सहित उसके सभी प्रमुख संबंधियों को पलामू में पकड़ लिया

➧ 1778 ईसवी के अंत तक पूरे रामगढ़ राज्य में अशांति की स्थिति बनी रही

 रामगढ़ राजा पारसनाथ सिंह बढ़ी हुई राजस्व की राशि ₹71,000 वार्षिक देने में सक्षम ना था। इसके बावजूद रामगढ़ के कलेक्टर ने राजस्व की राशि 1778 ईस्वी में ₹81,000 वार्षिक कर दी 

➧ मुकुंद सिंह के समर्थक ठाकुर रघुनाथ सिंह के नेतृत्व में विद्रोही तत्व विद्रोह पर उतारू थे रघुनाथ सिंह ने 4 परगनों पर कब्जा कर लिया वहां से पारसनाथ सिंह द्वारा नियुक्त जागीरदारों को खदेड़ दिया

➧ विद्रोहियों  के दमन के लिए कैप्टन एकरसन की बटालियन को बुलाना पड़ा। एकरसन और ले. डेनियल के संयुक्त प्रयास से रघुनाथ सिंह को उसके प्रमुख अनुयायियों के साथ बंदी बना लिया गया रघुनाथ सिंह को चटगांव भेज दिया गया

➧ रामगढ़ की सुरक्षा का जिम्मा कैप्टन क्रॉफर्ड को सौंप दिया गया

➧ अंग्रेजी कंपनी के निरंतर बढ़ते शिकंजे तथा करों में बेतहाशा वृद्धि से रामगढ़ के राजा पारसनाथ अब स्वयं अंग्रेजों के चंगुल से निकलने का उपाय सोचने लगे

➧ 1781 ईस्वी  में उसने बनारस के विद्रोही राजा चेतसिंह को सहायता प्रदान की

➧ राजा अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सालाना कर का कुछ भाग बचाकर अपने सैन्य शक्ति को मजबूत करने के अभियान में जुट गया

➧ 1781 ईस्वी के अंत तक संपूर्ण रामगढ़ में विद्रोह की आग सुलगने लगी विद्रोह की तीव्रता को देख रामगढ़ के कलेक्टर ने स्थिति को काबू में लाने के लिए सरकार से सैन्य सहायता की मांग की

➧ 1782 ईस्वी तक रामगढ़ के अनेक क्षेत्र उजड़ गये और रैयत पलायन कर गये स्थिति की भयावहता को देखते हुए उप कलेक्टर जी.डालमा ने सरकार से आग्रह किया कि रामगढ़ के राजा को राजस्व वसूली से मुक्त कर दिया जाए और राजस्व वसूली के लिए सीधा बंदोबस्त किया जाये 

➧ रामगढ़ के राजा द्वारा इस नयी व्यवस्था के पुरजोर विरोध के बावजूद डलास ने जागीरदारों के साथ खास बंदोबस्त कर राजा द्वारा उनकी जागीर को जब्त किये जाने पर रोक लगा दी। अर्थात रामगढ़ का राजा अब सिर्फ मुखौटा बन कर रह गया

➧ 1776 ईस्वी में फौजदारी तथा 1799 ईस्वी में दीवानी अदालत की स्थापना से राजा की स्थिति और भी कमजोर हो गयी 

➧ स्थिति का लाभ उठाते हुए तमाड़ के जमींदारों ने रामगढ़ राज्य पर निरंतर हमले किये। राजा पूरी तरह अंग्रेजों पर आश्रित हो गया यह स्थिति 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक बनी रही

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Pahadiya Vidroh 1772-82 (पहाड़िया विद्रोह 1772-82)

Pahadiya Vidroh (1772-82)

➧ पहाड़िया जनजाति की तीन उपजातियां हैं

(i) माल पहाड़िया 

(ii) सौरिया पहाड़िया

(iii) कुमारभाग पहाड़िया

➧ पहाड़िया जनजाति संथाल परगना प्रमंडल की प्राचीनतम जनजाति है वास्तव में यही यहां के प्रथम आदिम निवासी हैं

पहाड़िया विद्रोह 1772-82

(i) माल पहाड़िया :- ये मुख्यत: बांसलोई नदी के दक्षिण में बसे हैं

(ii) सौरिया पहाड़िया :- ये बांसलोई नदी के उत्तर  राजमहल, गोड्डा और पाकुड़ क्षेत्र में निवास करती हैं

(iii) कुमारभाग पहाड़िया:- ये बांसलोई नदी के उत्तरी तट पर बसे हैं

➧ पहाड़िया विद्रोह चार चरणों (1772, 1778, 1779, 1781-82) में घटित हुआ तथा सभी चरणों में इस विद्रोह के कारण भिन्न-भिन्न थे 

➧ 1772 ईस्वी में यह विद्रोह तब प्रारंभ हुआ पहाड़िया जनजाति के प्रधान की नृशंस एवं विश्वासघाती हत्या मनसबदारों ने कर दी, जबकि पहाड़िया जनजाति के लोग राजमहल क्षेत्र में मनसबदारों के अधीन थे और मनसबदारों से उनके अच्छे संबंध थे विद्रोह के इस चरण का नेतृत्व रमना आहड़ी ने किया

➧ 1778 ईस्वी में यह आंदोलन जगन्नाथ देव के नेतृत्व में प्रारंभ किया गया जगन्नाथ देव ने पहाड़िया जनजाति को अंग्रेजों द्वारा प्रदत नकदी भत्ता को साजिश करार देते हुए उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित करने का प्रयास किया।

 अंग्रेजी सरकार के क्लीवलैंड द्वारा पहाड़िया जनजाति के लोगों को विश्वास में लेने हेतु इस प्रकार का नकदी भत्ता देने की घोषणा की गई थी

➧ 1779 ईस्वी में इस विद्रोह का तीसरा चरण प्रारंभ हुआ

➧ 1781-82 ईस्वी में यह विद्रोह महेशपुर की रानी सर्वेशरी के नेतृत्व में प्रारंभ किया गया। यह विद्रोह 'दामिन-ए-कोह' के विरोध में किया गया था 

➧ 1790-1810 के बीच अंग्रेजों द्वारा इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में संथालों को आश्रय दिया गया तथा 1824 ई0 में अंग्रेजों द्वारा पहाड़िया जनजाति की भूमि को 'दामिन-ए-कोह' का नाम देकर सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया गया

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Thursday, May 6, 2021

Protein Folding- CSIR NET/ICMR/DBT (Life sciences)

Protein Folding

  • Protein folding is the physical process by which a polypeptide folds into its characteristics & functional three-dimensional 3D conformation.

  • The correct 3D structure is essential to protein function. Failure to fold into native structure produces inactive proteins.

  • A protein molecule folds spontaneously during/after biosynthesis. However, the process also depends on the nature of the solvent, the concentration of salts, the temperature, and the presence of molecular chaperones.

Protein Folding- CSIR NET/ICMR/DBT (Life sciences)


Experiment:

According to the experiment, which helps in the understanding of the protein folding was carried out by Biochemist Christian Anfinsen in 1960, that is the refolding of the protein ribonuclease A. 
  • Ribonuclease A isolated from the bovine pancreas is an enzyme that has a molecular weight (mw=13,700 Da) and it contains 124 amino acid residues and 4- disulfide linkages.

  • In the presence of a denaturant (Urea), and a reductant (reducing agent β-mercaptoethanol), Ribonuclease is denatured and the sulfide bonds are broken.

When the protein is allowed to renature by removing the denaturant and reductant (reducing agent), the protein regains its native confirmation, including 4 correctly paired disulfide bonds.

This finding provided the first evidence that;

  • However, when the reductant (reducing agent β-mercaptoethanol) is removed, while the denaturant (Urea) is still present, the disulfide bonds are formed again in protein but most of the disulfide bonds are formed between incorrect partners. This indicates that weak interactions are required for correct positioning of disulfide bonds and assumption of the native conformation.

Anfinsen's Experiment: Denaturation/Renaturation of Ribonuclease. Depending on the conditions for renaturation, we obtain either native ribonuclease or scrambled ribonuclease. 




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Tana Bhagat Andolan-1914 (ताना भगत आंदोलन-1914)

Tana Bhagat Andolan-1914

➧ ताना भगत आंदोलन का प्रारंभ जतरा भगत के नेतृत्व में 21 अप्रैल, 1914 ईस्वी में गुमला में हुआ 

➧ इस आंदोलन को बिरसा मुंडा के आंदोलन का विस्तार माना जाता है। 

➧ यह एक प्रकार का संस्कृतिकरण आंदोलन था जिसमें एकेश्वरवाद को अपनाने, मांस-मदिरा के त्याग, आदिवासी नृत्य पर पाबंदी तथा झूम खेती की वापसी पर विशेष बल दिया गया

ताना भगत आंदोलन-1914

➧ इस आंदोलन को प्रसारित करने में मांडर में शिव भगत, घाघरा में बलराम भगत, विशुनपुर में भीखू भगत तथा सिसई में देवमनिया नामक महिला ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।  

➧ इस आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य स्वशासन की स्थापना करना था।   

 इस आंदोलन को प्रारंभ में कुरुख धर्म आंदोलन के नाम से जाना गया, जो कुडुख या उरांव जनजाति का मूल धर्म है

 1916 में जतरा भगत को गिरफ्तार करके 1 वर्ष की सजा दे दी गई। परंतु बाद में उसे शांति बनाए रखने की शर्त पर रिहा कर दिया गया। 

➧ जेल में रिहा होने के 2 महीना बाद ही जतरा भगत की मृत्यु हो गई इनकी मृत्यु का कारण जेल में उनको दी गई प्रताड़ना थी। 

➧ मांडर में इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता  शिबू भगत द्वारा टाना भगतों को मांस खाने की स्वीकृति प्रदान की गई, जिसके परिणाम स्वरूप टाना भगत को दो भागों में विभक्त हो गए। इनमें मांस खाने वाले वर्ग को 'जुलाहा भगत' तथा शाकाहारी वर्ग को 'अरुवा  भगत' (अरवा चावल खाने वाले) का नाम दिया गया

➧ धार्मिक आंदोलन के रूप में प्रारंभ यह आंदोलन बाद में राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित हो गया

➧ 1916 ईस्वी के अंत तक इस आंदोलन का विस्तार रांची के साथ-साथ पलामू तक फैल गया 

➧ टाना भक्तों ने पलामू के राजा के समक्ष स्वशासन प्रदान करने, राजा का पद समाप्त करने, भूमि कर को समाप्त करने तथा समानता की स्थापना की मांग रखी 

➧ राजा ने इन मांगों को अस्वीकृत कर दिया जिसके कारण टाना भगतों व राजा के समक्ष तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई 

 इस आंदोलन का विस्तार सरगुजा तक हो गया था 

➧ 1921 ईस्वी में छोटानागपुर प्रमंडल में ताना भगत आंदोलन से जुड़े सिन्हा भगत, देवीया भगत,  शिबू भगत, माया भगत, व सुकरा भगत को गिरफ्तार कर उन्हें सजा दी गई, परंतु आंदोलन जारी रहा

 दिसंबर, 1919 ईस्वी में तुरियां भगत एवं जीतू भगत ने चौकीदारी कर एवं जमींदारों को मालगुजारी नहीं देने का आह्वान किया

➧ यह आंदोलन पूर्णत: अहिंसक था तथा  टाना भगतों ने इस आंदोलन के तृतीय चरण में महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया

➧ 1921 ईस्वी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में ताना भगतों  ने 'सिद्धू भगत' के नेतृत्व में भाग लिया था। 

➧ इस दौरान ताना भगतों ने शराब की दुकानों पर धरना, सत्याग्रह एवं प्रदर्शनों में अपनी भागीदारी आदि द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन को मजबूत किया।  

➧ महात्मा गांधी से प्रभावित होकर ताना भगतों  ने चरखा व खादी वस्त्रों का अनुकरण किया। महात्मा गांधी के अनुसार टाना भगत उनके सबसे प्रिय थे।  

 ताना भगतों ने कांग्रेस के 1922 ईस्वी के गया अधिवेशन व 1923 के नागपुर अधिवेशन में भाग लिया था

➧ यह विशुद्ध गांधीवादी तरीके से लड़ा गया पहला आदिवासी अहिंसक आंदोलन था 

1930 ईस्वी में सरदार पटेल द्वारा बारदोली में कर ना देने का आंदोलन चलाया गया था जिस से प्रभावित होकर टाना भगतों ने भी सरकार को कर देना बंद कर दिया।

➧ 1940 के रामगढ़ अधिवेशन में ताना भगतों ने महात्मा गांधी को ₹400 उपहार स्वरूप प्रदान किए थे  

➧ 1948 ईस्वी में 'रांची जिला ताना भगत पुनर्वास परिषद' अधिनियम पारित किया गया था

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