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Wednesday, January 6, 2021

Jharkhand Ke Pramukh Lok Nritya (झारखंड के प्रमुख लोक नृत्य)

Jharkhand Ke Pramukh Lok Nritya


झारखंड के प्रमुख लोक नृत्य


छऊ नृत्य

यह झारखंड का सबसे महत्वपूर्ण लोक नृत्य है
युद्ध भूमि से संबंधित यह लोक-नृत्य शारीरिक भाव-भंगिमाओं, ओजस्वी स्वरो  तथा पगो की धीमी व तीव्र गति द्वारा संचालित होता है

इस नृत्य की दो श्रेणियां हैं

1) हातियार श्रेणी तथा 
2) काली भंग श्रेणी 

सरायकेला राज-घराने में पल्लवित हुआ, इस नृत्य का विदेश में (यूरोप में) सबसे पहले प्रदर्शन 1938 में सरायकेला के राजकुमार सुधेन्दु नारायण सिंह ने करवाया था

यह ओजपूर्ण नृत्य शैली है, जिसमें पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथाओं के मंचन के लिए पात्र तरह-तरह के मुखोटे धारण करते हैं


झारखंड की लोक शैली के नृत्यों में यह  पहला नृत्य है, जो सिर्फ दर्शकों के लिए प्रदर्शित होता है 

झारखंड के अन्य सभी लोक नृत्यों में सिर्फ भावभिव्यक्ति ही होती है। उनके साथ कोई प्रसंग या कथानक नहीं होता। 
छऊ में प्रसंग या कथानक हमेशा मौजूद रहता है
 
अन्य लोक नृत्यों के संचालन में किसी गुरु या प्रशिक्षित शिक्षक की उपस्थिति नहीं होती, किंतु छाऊ नृत्य में उस्ताद या गुरु की उपस्थिति आवश्यक होती है 

पाइका नृत्य 

यह एक ओजपूर्ण नृत्य है, जिसमें नर्तक  सैनिक वेश में नृत्य करते हैं। 
 
इसमें नर्तक  रंग-बिरंगे झिलमिलाती कलगी लगी या मोर पंख लगी पगड़ी बांधते हैं। 
यह एक प्रकार का युद्ध से संबंधित नृत्य है और 
मुंडा जनजातियों का एक प्रमुख नृत्य है। 

नटुआ नृत्य

यह  पुरुष प्रधान नृत्य है यह पाइका नृत्य का एकल रूप जैसा है।  
इसमें भी कलगी रह सकती है, परंतु यह अनिवार्य नहीं है।  


करिया झूमर नृत्य

महिला प्रधान इस नृत्य में महिलाएं अपनी सहेलियों के हाथों में हाथ डालकर घूम- घूम कर नाचती-गाती है।  

करम नृत्य 

यह नृत्य करमा पर्व के अवसर पर सामूहिक रूप से किया जाता है यह नृत्य झुककर होता है करम के दो भेद हैं :-खेमटा  और झीनसारी।  

खेमटा में गति अत्यंत धीमी किंतु अत्यंत कमनिया होती है। 
झीनसारी रात के तीसरे पहर से सुबह मुर्गे की बांग देने तक चलने वाला नृत्य है। 


जतरा
 नृत्य

यह एक सामूहिक नृत्य है इसमें स्त्री-पुरुष एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नृत्य करते हैं। 
इसमें युवक-युवतियां कभी वृत्ताकार और कभी अर्द्ध-वृत्ताकार रूप में नृत्य करते हैं। 

नचनी नृत्य 

यह एक पेशेवर नृत्य है नचनी (स्त्री) और रसिक (पुरुष नर्तक) कार्तिक पूर्णिमा के दिन विशेष रूप से इस नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। 

अंगनाई नृत्य 

यह एक धार्मिक नृत्य है, जो पूजा के अवसर पर किया जाता है। 
यह सदनों के आंगन का नृत्य है, जिसे उरांवों ने भी अपना लिया है। 
इसके प्रमुख भेदों  में शामिल है:- पहिलसाझा, अधरतिया, विहनिया, लहसुआ, उदासी,लुझकी आदि।  

मुण्डारी नृत्य 

मुंडा जनजातियों  का रंग-बिरंगी पोशाक में यह एक  सामूहिक नृत्य है।  
इस समाज के प्रमुख नृत्य है -जदुर, ओर जदुर, नीर जदुर,जापी,गेना,चीटिद,छव, करम ,खेमटा,जरगा,ओरजरगा, जतरा,पाइका, बरु,जाली  नृत्य आदि।  

कठोरवा नृत्य

यह मुखौटे  पहनकर पुरुषों द्वारा लिया जाने वाला नृत्य है।  

मागे नृत्य

यह  नृत्य मुख्य रूप से हो जनजाति में प्रचलित है
यह महिला-पुरुषों का सामूहिक नृत्य है, जो माघ मास की पूर्णिमा में किया जाता है,इसमें बजाने, नाचने और गाने वाले नाचने वालियों के मध्य घिरे होते हैं

बा नृत्य

हो जनजातियों का यह एक प्रमुख नृत्य है
सरहुल के अवसर पर इस नृत्य में स्त्री-पुरुष सम्मिलित होकर नाचते-गाते तथा बजाते हैं 
एक साथ नृत्य तथा गीत वाले इस नृत्य में पुरुषों तथा महिलाओं का अलग दल होता है

हेरो नृत्य 

इस नृत्य में धान बोने की समाप्ति के उपरांत महिला-पुरुष सम्मिलित रूप से पारंपरिक वादियों के साथ नृत्य करते हैं

जोमनमा नृत्य

नया अन्न ग्रहण करने की खुशी में मनाए जाने वाले इस नृत्य में महिला-पुरुष सामूहिक रूप से नृत्य करते हैं। इसमें मादर, नगाड़े, बनम आदि बजाए जाते हैं

दसाई नृत्य

यह दशहरे के समय का पुरुष प्रधान नृत्य है, जिसमें हाथों में छोटे-छोटे डंडे नृतक पकड़े होते हैं 
नाचने वाले घर-घर जाकर लोगों के आंगनों में नाचते हैं और हर घर से अनाज प्राप्त करते हैं

सोहराई  नृत्य

यह नृत्य पालतू पशुओं के लिए बनाए जाने वाला उत्सव में होता है
इस नृत्य में महिला चुम्मावड़ी गीत गाती है


गेना और जपिद नृत्य

इसमें महिलाएं नृत्य करती है और पुरुष वाद्य संभालते हैं 
महिलाएं जहां कतार में जुड़कर नृत्य करती हैं, वहीं पुरुष गीतों के भावनानुरूप स्वतंत्र रूप से निर्णय करते हैं

जदुर नृत्य 

यह एक महिला प्रधान नृत्य है, जो सरहुल के समय किया जाता है अन्य  ऋतु या अवसर पर यह नृत्य वर्जित है 
इस तीव्र गति वाले नृत्य में महिलाएं झूमर की तरह जुड़ी हुई नृत्य करते हुए गीत गाती है 
जिसके मध्य में पुरुष नर्तक और वादक घिरे रहते हैं 
इसमें लय- ताल तथा राग के अनुरूप वृत्ताकार में दौड़ते हुए महिलाएं नृत्य करती हैं 


टुसु नृत्य

यह नृत्य मकर संक्रांति के अवसर पर महिलाओं द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है जिसमें वे टुसु के प्रतीक चौढ़ाल  को प्रवाहित करने हेतु जाते समय करती हैं 

रास नृत्य

कार्तिक पूर्णिमा में एक या अधिक नचनी द्वारा किया जाने वाला एक मनमोहक नृत्य है,इसमें पुरुष नर्तक, वादक एवं गायक होते हैं, जिनके मध्य नर्तिकाएँ नृत्य करती हैं 

जरगा नृत्य 

यह माघ त्योहार से संबंधित नृत्य है इसमें बालाये  एक-दूसरे की कमर पकड़कर जुड़ती है और दाएं-बाएं फिर दाहिनी और बढ़ती हुई नृत्य करती है  
यह मध्य गति का नृत्य है इसमें पैरों की चाल् या पद संचालन की अपनी विशिष्टता  है 


ओर जरगा नृत्य 

यह  नृत्य जरगा नृत्य के साथ-साथ चलता है  इसमें महिलाओं का एक ही दल होता है 
तीव्र गति से ने नृत्य  करती हुई महिलाएं वृत्ताकार घूमती हैं 
इनके मध्य गायक, वादक नर्तक पुरुषों की मंडली होती हैं

फगुवा  नृत्य

यह फगुआ (फरवरी) और चैत (अप्रैल) के संधिकाल का पुरुष प्रधान नृत्य है 
फगुआ चढ़ते ही फगुआ नृत्य की तैयारी शुरू हो जाती है
इसमें एक दल गाने वालों का तो दूसरा दल लोकने (दोहराने) वालों का होता है

घोड़ा नृत्य

यह नर्तकों द्वारा बिना पैर के घोड़े की आकृति बनाकर किया जाता है विशेष, मेलों ,त्योहारों ,उत्सवों  एवं बारात के स्वागत के समय का यह नृत्य है 
इसे  मुखड़े पर बांस के पहियों से बिना पैर के घोड़े का आकार दिया जाता है
बैठने के स्थान पर नर्तक इस तरह खड़ा रहता है जैसे वह घोड़े पर सवार है 
नर्तक बाएं हाथ से घोड़े की लगाम और दाहिने हाथ से दोधारी तलवार चमकाते रहता है
मुस्कुराता हुआ युद्धरत  विजयी राजा या सेनापति की तरह सीना ताने या नर्तक नृत्य करता है
नागपुरी क्षेत्र में घोड़ा नृत्य के लिए पांडे दुर्गानाथ राय मैसूर थे

जापी नृत्य

यह शिकार से विजयी  होकर लौटने का प्रतीक नृत्य है, इसमें स्त्री-पुरुष सामूहिक रूप से निर्णय करते हैं
यह मध्य गति का नृत्य है, इसके वादक , गायक, नर्तक पुरुष और महिलाओं से घिरे रहते हैं 
इस नृत्य में महिलाएं एक-दूसरे की कमर पकड़कर जुड़ी रहती है
पुरुषों का एक दल बजाता है दूसरे दल वाले अपने लय-ताल से नाचते-गाते हैं 
महिलाएं पुरुष नायक के गीतों की अंतिम कड़ी को गाती है

राचा नृत्य

यह नृत्य खूटी के दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र में प्रचलित है 
इसे बरया खेलना या नाचना भी कहते हैं कहीं-कहीं इसे खड़िया नाच भी कहते हैं 
इसमें मादर तथा घंटी का विशेष महत्व रहता है
इस नृत्य में, पुरुष महिलाओं को आगे अपनी ओर आते देख पीछे हटते हैं 
दूसरे दौर में, पुरुष गीत गाते हुए बालाओं को नृत्य शैली से पीछे धकेलते हैं

➤धुड़िया नृत्य

सरहुल के उपरांत उरांव लोग खेत जोत लेते हैं और बीज बो देते  है। मौसम के अनुरूप इसमें जूते खेतों से धूल उड़ती है 
धूल उड़ाते हैं इससे इस काल के नृत्य  को धुड़िया  नृत्य कहते हैं 
इसे मांदर के ताल पर नाचा जाता है
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Saturday, January 2, 2021

Jharkhand Ke Pramukh Mandir (झारखंड के प्रमुख मंदिर)

Jharkhand Ke Pramukh Mandir

झारखंड के प्रमुख मंदिर

छिन्नमस्तिका मंदिर (रजरप्पा)

➤यह मंदिर रामगढ़ जिला में अवस्थित है

यह दामोदर नदी और भेड़ा (भैरवी) नदी के संगम पर स्थित है

इसकी प्रसिद्ध शक्तिपीठ के रूप में है तंत्रिकों के लिए तंत्र-साधना हेतु इसे उपयुक्त स्थल माना जाता है

यहां शारदायी दुर्गा उत्सव में मां की महानवमी पूजा सबसे पहले संथाल आदिवासियों के द्वारा प्रारंभ की जाती है और इन्हीं के द्वारा प्रथम बकरे की बलि दी जाती है

इस मंदिर में देवी काली की धड़ से अलग सर वाली मूर्ति स्थापित है जिस कारण इसे छिन्नमस्तिका कहा जाता है

यह मूर्ति शक्ति के तीन रूपों-सौम्या, उग्र और काम में से उग्र रूप को प्रतिनिधित्व करती है

➤देवी की छिन्न मस्तक मानव मस्तिक की चंचलता का प्रतीक है

देवी के दाएं और बाएं डाकिनी और शाकिनी विराजमान है

देवी के पैरों के नीचे रती-कामदेव को दर्शाया गया है जो कामनाओं के दमन का प्रतीक है

➤छिन्नमस्तिका मंदिर को वन दुर्गा मंदिर भी कहा जाता है क्योंकि 1947 ईस्वी तक यह मंदिर घने वनों के बीच स्थित है

देवड़ी मंदिर (राँची)

यह मंदिर तमाड़ से 3 किलोमीटर दूर देवड़ी नामक ग्राम में स्थित है

यहां 16 भुजा देवी की मूर्ति है

देवी की मूर्ति के ऊपर शिव की मूर्ति है तथा अगल-बगल में सरस्वती, लक्ष्मी, कार्तिक और गणेश की मूर्तियां हैं

परंपरा के अनुसार इस मंदिर में सप्ताह में 6 दिन पाहन और एक दिन ब्राह्मण  पुजारी पूजा करते हैं

जगन्नाथ मंदिर (राँची)

इस  मंदिर की स्थापना 1691 नागवंशी राजा ठाकुर ऐनी शाह  के द्वारा की गई थी

यह पुरी के जगन्नाथ मंदिर की तर्ज पर यहां भी 100 फीट ऊंची मंदिर का निर्माण किया गया है

रथ यात्रा के समय यहां विशाल मेला लगता है

 यह मंदिर रांची के क्षेत्र में जगह-जगह नाथ स्थित है 

कौलेश्वरी मंदिर (चतरा)

मां कौलेश्वरी देवी का मंदिर चतरा में स्थित है

मां कौलेश्वरी देवी का मंदिर 1575 फुट की ऊंचाई वाले कलुआ पहाड़ पर स्थित है 

➤कोल्हुआ पहाड़ तीन धर्मों  हिंदू, बौद्ध और जैनों का संगम स्थल है 

यहां जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव,पार्शवनाथ आदि की प्रतिमाएं स्थापित है 

कई मंदिरों के समूह को कालेश्वरी का मंदिर कहा जाता है

यह गुफाओं का मंदिर है

यहां पशु बलि दी जाती है और मेले का आयोजन होता है

मां भद्रकाली मंदिर (इटखोरी चतरा)  

यह मन्दिर चतरा जिला में चौपारण से 16 किलोमीटर की दूरी पर इटखोरी प्रखंड के भदौली गांव में स्थित है

इस मंदिर में भद्रकाली की मूर्ति प्रतिष्ठित है

यह मूर्ति शक्ति के रूप तीन रूपों -सौम्य, उग्र व काम में से सौम्य रूप का प्रतिनिधित्व करती है

यह एक ही शिलाखंड से तराशी गई मूर्ति है, जो साढ़े चार फीट ऊंची, ढाई फीट चौड़ी और 30 मन भारी है

संभवत यह  मंदिर पालकाल में (पांचवी-छटवीं शताब्दी) स्थापित की गई थी

यह सहत्रीलिंगी शिवलिंग भी है, जिसमें एक 1008 छोटे-छोटे शिवलिंग उकेरे गए हैं

मंदिर परिसर में ही कोठेश्वरनाथ स्तूप है, जिसके चारों ओर भगवान बुद्ध की मूर्तियां अंकित है

इसके ऊपर 4 इंच लंबा, चौड़ा और गहरा गड्ढा है, जिसमें हमेशा 3 इंच पानी बना रहता है

कुंदा का किला (चतरा)

यह किला चेरों का था, जो चतरा जिले के कुंदा  नामक स्थान पर स्थित है,अब यह खंडहर हो चुका है

इस कीले की मीनारें मुगल शैली से निर्मित है

किले के प्रांगण में एक कुआं है, जहां सुरंगनुमा रास्ता था

बैद्यनाथ मंदिर(देवघर)

इस मंदिर का निर्माण गिद्दौर राजवंश के दसवें राजा पूरणमल द्वारा कराया गया था

शिव  के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक मनोकामना लिंग बैद्यनाथ धाम देवघर में स्थापित है

इस मंदिर के प्रांगण में कुल 22 मंदिर हैं

➤ये हैं - वैद्यनाथ, पार्वती, लक्ष्मीनारायण, तारा, काली, गणेश, सूर्य, सरस्वती, रामचंद्र, देवी अन्नपूर्णा, आनंद भैरव, नीलकंठ, गंगा, नरदेश्वर, राम-लक्ष्मण-सीता, जगत जननी, काल भैरव, ब्रह्म, संध्या गौरी, हनुमान, मनसा शंकर, बगुला माता काली के मंदिर

यह भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है

अकबर के सेनापति मानसिंह द्वारा यहां पर निर्मित एक मानसरोवर तालाब है

मंदिर के गर्भगृह के शिखर पर अष्टदल कमल के बीच में चंद्रकांत मणि है

यहां भगवान शिव के शिखर पर पंचशूल स्थापित है

युगल मंदिर(देवघर)

यह  मंदिर भी देवघर में है

इसे  नौलखा मंदिर के नाम से जाना जाता है इसका निर्माण में ₹900000 खर्च हुए थे

तपोवन मंदिर (देवघर)

यहां भगवान शिव का एक मंदिर है

➤यहाँ गुफाएँ हैं ,जिसमें ब्रह्मचारी लोग निवास  करते हैं

कहा जाता है कि कभी माता सीता ने यहां तपस्या की थी

बासुकीनाथ धाम (दुमका)

बासुकीनाथ धाम दुमका से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है

बैद्यनाथ धाम आने वाले प्राय: प्रत्येक तीर्थयात्री यहां आए बगैर दिन और अपनी यात्रा पूरी नहीं मानता

बासुकीनाथ की कथा समुद्र मंथन  से जुड़ी हुई है ,समुन्द्र मंथन में मंदराचल पर्वत को मथानी और बासुकीनाथ को रस्सी  बनाया गया था

बासुकिनाथ मंदिर को 150 वर्ष बताया जाता है, जिसका निर्माण बासकी तांती ने कराया था, जो हरिजन जाति का था

शिवरात्रि के दिन यहाँ  विशाल मेला लगता है

महामाया मंदिर (गुमला)

रांची-लोहरदगा-गुमला मार्ग में लोहरदगा से 14 किलोमीटर दूर गम्हरिया नामक स्थान में 1 किलोमीटर पश्चिम में हापामुनी नामक गांव में महामाया का मंदिर स्थित है

इस मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा गजघंट ने 908 ईस्वी में करवाया था

इस मंदिर में काली मां की मूर्ति स्थापित है

यह एक तांत्रिक पीठ है

इस मंदिर का प्रथम पुरोहित द्विज हरिनाथ थे

टांगीनाथ मंदिर (गुमला)

यह मंदिर में मझगांव की पहाड़ी पर स्थित है

टांगी पहाड़ पर शिवलिंग के अलावा दुर्गा,भगवती, लक्ष्मी ,गणेश, अर्धनारीश्वर, विष्णु, सूर्यदेव, हनुमान आदि की मूर्तियां हैं

➤ये मूर्तियां प्राचीन शिल्पकला के  सुंदर नमूने हैं

मुख्य मंदिर का नाम टांगीनाथ अथवा शिव मंदिर है

मंदिर के अंदर एक विशाल शिवलिंग के अलावा आठ अन्य शिवलिंग भी है

हल्दीघाटी मंदिर (गुमला)

यह मंदिर गुमला जिले के कोराम्बे नामक स्थान में स्थित है

यहां का पहला शासक कोल तेली राजा था।बाद में यहाँ रक्सेल आये 

➤यह स्थान नागवंशी राजा तथा रक्सेल के लिए हल्दी घाटी के समान माना जाता है

कोरमबे में वासुदेव राय का मंदिर है

वासुदेव राय की काले पत्थरों से निर्मित आकर्षक मूर्ति प्राचीन परंपरा का प्रतीक है

मां योगिनी का मंदिर(गोड्डा)

यह मंदिर बराकोपा पहाड़ी पर स्थित है

मान्यता है अनुसार मां-सीता का दाहिना जांघ यहां गिरा था

यहां मां की प्रतिमा के रूप में जाँघ  की आकृति का शैल अंश है 

भक्तजन यहां लाल वस्त्र चढ़ाते हैं

इस मंदिर के समस्त निर्माण खर्चों का वहन श्रीमती चारुशिला देवी ने किया था

श्री बंशीधर मंदिर (गढ़वा) :-

यह मंदिर नगर उंटारी में राजा के गढ़ के पीछे स्थित है

इस मंदिर की स्थापना 1885 में की गई थी

यहां राधा कृष्ण की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं

सूर्य मंदिर (बंडू)

रांची-टाटा मार्ग पर बुंडू के नजदीक इस मंदिर की स्थापना की गई है

यह मंदिर सूर्य के रथ की आकृति में बनाया गया है

इसका निर्माण संस्कृति-विहार, रांची नामक एक संस्था ने किया है

मंदिर की खूबसूरती के संबंध में स्थानीय साहित्यकारों ने इसे 'पत्थर पर लिखी कविता' कहा है

बेनीसागर का शिव मंदिर (पश्चिमी सिंहभूम

इस मंदिर का निर्माण काल 602 से 625 के बीच बताया जाता है

संभवत:गौड़ शासक शशांक द्वारा इस मंदिर का निर्माण हुआ था

यहां से छठी शताब्दी की 33 छोटी-बड़ी मूर्तियां मिली हैं, जिसमें हनुमान, गणेश और दुर्गा की प्रतिमाएं प्रमुख है

शिवलिंग के साथ शिलालेख भी यहां से प्राप्त हुए हैं

उग्रतारा मंदिर नगर

यह मंदिर लातेहार जिला के चंदवा प्रखंड मुख्यालय से लगभग 9 किलोमीटर दूर पर नगर गांव (मंदाकिनी पहाड़) में अवस्थित है

इस मंदिर की प्रसिद्ध एक सिद्ध तंत्रपीठ के रूप में दूर-दूर तक व्याप्त है

मंदिर में लगभग 2 किलोमीटर दूर पश्चिम की ओर पहाड़ी पर एक मजार है

यह मजार मदारशाह के मजार के नाम से प्रसिद्ध है

काली कुल की देवी उग्रतारा और श्री कुल की देवी लक्ष्मी का एक ही स्थान पर स्थापित होना इस मंदिर की मुख्य विशेषता है



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Friday, January 1, 2021

Dhoklo shohor shashan vyavastha (ढोकलो सोहोर शासन व्यवस्था)

Dhoklo shohor shashan vyavastha

खड़िया झारखंड की एक प्रमुख जनजाति है

ढोकलो सोहोर शासन व्यवस्था को ही खड़िया शासन व्यवस्था भी कहा जाता है 

यह प्रोटो ऑस्ट्रोलॉयड से सम्बन्ध रखती है

इनकी भाषा खड़िया है

जिसमें मुण्डारी,उरांव ,तथा आर्य भाषा के शब्द मिलते है इस जाति के लोग झारखंड में गुमला ,सिमडेगा तथा रांची ,उड़ीसा ,छत्तीसगढ़ राज्य में फैले हुए है 

झारखण्ड में ज़्यादातर लोग बीरु क्षेत्र सिमडेगा से हैं

खड़िया भाषा में ढोकलो का अर्थ -बैठक और सोहोर का अर्थ - अध्यक्ष 

Dhoklo shohor shashan vyavastha

इनका उद्गम स्थान रो:जंग बताया जाता है

1934-35 ईस्वी के आस -पास जब समस्त आदिवासी समाज शिक्षा के विकास के साथ जाग्रत हो रहा था, लगभग इसी समय खड़िया जाति के अग्रणी लोगों के द्वारा भी अपने समाज को संगठित करने,सशक्त बनाने हेतु अखिल भारतीय महासभा का गठन किया गया,जिसे ढोकलो के नाम से जाना जाता है।  

खड़िया लोगों में किसी शबर गांव के सभी निवासी एक गोत्र के होते हैं

जो ढोकलो का सभापति जो संपूर्ण खड़िया समाज का राजा होता है 'ढोकलो सोहोर' कहलाता है।

ढोकलो में सभी क्षेत्र के प्रमुख प्रतिनिधि ,महतो ,पाहन, करटाहा इकठ्ठा होते हैं, इस सभा में ' ढोकलो सोहोर' का चुनाव खड़िया जनजाति के लोगों द्वारा करते हैं

इनका कार्यकाल 3 वर्षों के लिए होता है

खड़िया तीन प्रकार के होते है 

1) पहाड़ी खड़िया या शबर खड़िया

2) दूध खड़िया,

3) ढेलकी  खड़िया

तीनों के स्वशासन के पद नामों में कुछ अंतर है। इनका ग्राम पंचायत अपने ढंग का होता है। 

पहाड़ी खड़िया 

(क) डंडिया : - पहाड़ी खड़िया गांव के प्रधान या शासक को डंडिया कहा जाता है

(ख) डिहुरी : -पहाड़ी खड़िया गांव के दूसरे प्रधानमंत्री को डिहुरी कहते हैं, यही गांव का पुजारी होता हैयह पूजा-पाठ, शादी-विवाह तथा पर्व-त्योहारों में मुख्य भूमिका निभाता है साथ ही यह डंडिया का सहयोगी भी रहता है

➤ दो से तीन दूध खड़िया और डेलकी खड़िया : - इन दोनों प्रकार के खड़िया गांवों  के प्रशासक या प्रधान को ढ़ोकलो शोहोर कहते हैं 

(ग) ढ़ोकलो सोहोर का अर्थ है :-  फा.डॉ.निकोलस टेटे  ने अपने शब्द खड़िया शब्द में कोष में 'सभापति' बताया है 

ग्राम सभा या ग्राम पंचायत (स्वशासन) के अध्यक्ष को भी ढोकलो सोहोर कहते हैं

यही ग्राम सभा का संचालन करता है तथा आगत मामलों का निपटारा करता है 

खड़िया स्वशासन के निम्न पद होते हैं

(1) महतो :- परंपरागत रूप से जिन लोगों ने गाँव बसाया था उन्हें महतो कह कर संबोधित किया जाता है 

 महतो को गांव का मुख्य व्यक्ति माना जाता है यह पद सामान्यत: वशांनुगत होता है 

 गाँव वालो की सहमति से महतो को बदला जा सकता है  

(2) करटाहा :- प्रत्येक खड़िया पारंपरिक गांव में करटाहा होता है 

20-25 गांवों  के अनुभवी लोग मिलकर पंचायत में गांव के सुयोग्य व्यक्ति को करटाहा चुनते हैं

इमानदारी, न्यायी, निष्पक्ष, बुद्धिमान, सामाजिक-सांस्कृतिक  विधानों को जानने वालों को ही करटाहा चुना जाता है

यह अवनैतिक होता है परंतु समाज में उसका मान-सम्मान होता है

सामाजिक कार्य करने वालों को दंड देना करटाहा का कार्य है, यह वंशानुगत नहीं होता है 

(3) रेड :- करटाहा से बड़ा रेड का होता है 

(4) परगना का राजा  :- रेड से ऊपर का पद परगना के खड़ियाओं के राजा का पद होता है 

 ग्राम-पंचायत के शासन, न्याय तथा अन्य मामले देखने का अधिकार इसे प्राप्त होता है 

(5) खड़िया राजा  :- परगना से ऊपर का पद खड़िया राजा का होता है यह पुरे खड़िया महासभा का सर्वोच्च सभापति होता है

इसको ही खड़िया राजा कहते है इसका अंतिम निर्णय होता है

(6) लिखाकड़ (सचिव या मंत्री)  :- खड़िया राजा के सचिव या मंत्री होते हैं जो राजा के सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक आदि कार्यों में सहयोग देते हैं

(7) तिंजाडकड़ या खजांची :- यह खड़िया राजा के आय -व्यय का विवरण रखता है 

(8) देवान या सलाहकार  :- यह भी खड़िया राजा का सलाहकार होता है 

खड़िया राजा, लिखवाड़ और देवान की सहायता से मामलों का निपटारा करता है।आवश्यकता पड़ने पर अपराधी को आर्थिक दंड भी दिया जाता है 

इस दंड से प्राप्त राशि से कुछ रकम अपने पदाधिकारियों, खजांची, लिखाकड़, देवान आदि को खड़िया राजा देता है,पर यह कभी भी वेतन की भांति नहीं होता। बाकी पैसे समाज या पंचायत को खस्सी भोज देने में लगाया जाता है 

(9) कालो या पाहन  :- प्रत्येक दूध खड़िया और डेलकी खड़िया गांव का एक पुजारी होता है उसे कालो या पाहन कहते हैं 

कालो धार्मिक कार्य करते हैं जो एक पुरोहित करता है हर गोत्र का एक कालो या पाहन होता है 

यह वंशानुगत होता है  

प्रायः बड़े खड़िया गांव के कालो को पाहन कहते हैं  

कालो तथा पाहन  दोनों परंपरागत होते हैं  

खड़िया समाज में भी पाहन (पुजारी) को गांव की ओर से पहनई जमीन दी जाती है

इसकी उपज से वह धार्मिक कार्यों का खर्च निकलता है

पाहन या कालो  के लिए मुंडा, उरांव में भी पहनई जमीन दी जाती है 

कालो या पाहन के वंश ना होने पर नए का चुनाव पारंपारिक पंचायत करती है 

मूलतः ढोकलाे  शोहोर  शब्द खड़िया महासभा के सभापति या अध्यक्ष के लिए प्रयोग किया जाता है 

परंतु अब खड़िया राजा के लिए ढोकलाे सोहोर का प्रयोग होने लगा है 

खड़िया समाज के नीचे के पदाधिकारी सभी खड़िया राजा या ढोकलाे  शोहोर के प्रति उत्तरदाई होते हैं

गांव की हर स्थिति की सूचना इसे देते हैं और इनकी निर्देश पर शासन या न्याय करते हैं 

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Wednesday, December 30, 2020

Jharkhand Ki Bhasha Aur Boli(झारखण्ड की भाषा और बोली)

Jharkhand Ki Bhasha Aur Boli

झारखण्ड की भाषा और बोली

➤भाषा और बोली के बीच विभाजन की रेखा बहुत ही पतली होती है

भाषा का क्षेत्र विस्तृत होता है, जिसमें साहित्यिक रचनाएं होती है

जबकि बोली का क्षेत्र छोटा होता है इसमें साहित्यिक रचनाएं नहीं होती

भाषा के आधार पर झारखंड की भाषाओं एवं बोलियों  को 3 वर्गों में बांटा जा सकता है

1) मुंडारी भाषा (आस्ट्रो एशियाटिक) परिवार

2) द्रविढ़ (द्रविड़ियन) भाषा परिवार और

3) इंडो-आर्यन भाषा परिवार

1) मुंडारी भाषा (आस्ट्रो एशियाटिक) परिवार

इस भाषा परिवार में संताली, मुंडारी, हो, खड़िया, करमाली, भूमिज,  महाली, बिरजिया, असुरी, कोरबा आदि भाषाएं शामिल है 

मुंडा भाषा परिवार की ये  बोलियां रांची,सिंहभूम , हजारीबाग आदि क्षेत्र में यहां की जनजातियां द्वारा बोली जाती है

 संथाली भाषा को होड़ -रोड़ अर्थात होड़  लोगों की बोली भी कहा जाता है 

➤यह भाषा संख्या की दृस्टि से झारखण्ड में बोली जाने वाली द्वितीय भाषा है 

➤42 वें संविधान संशोधन 2003 के द्वारा सविंधान की आठवीं अनुसूची में इस भाषा को स्थान दिया गया है 

➤यह भाषा सविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान पाने वाली  झारखंड की एकमात्र क्षेत्रीय भाषा है 

इसके दो रूप मिलते हैं:- शुद्ध संथाली एवं मिश्रित संथाली 

मिश्रित संथाली में बांग्ला, उड़िया, मैथिली आदि का मिश्रण मिलता है

मुंडारी :- मुंडा जनजाति की भाषा का नाम मुण्डारी है ,जिसके चार रूप मिलते हैं 

➤खूटी और मुरहू क्षेत्र के पूर्वी अंचलों में बोली जाने वाली मुंडारी को हसद मुंडारी कहा जाता हैं 

➤तामड़ के आस-पास के क्षेत्र में बोली जाने वाली मुंडारी तमड़िया मुंडारी कहलाती है

➤केर मुण्डारी राँच के आस-पास के के क्षेत्रों में बोली जाने वाली मुंडारी भाषा है 

नागपुरी भाषा मिश्रित मुंडारी को नगूरी मुंडारी कहा जाता है

➤यह तोरपा,कर्रा ,कोलेबिरा  वानों आदि क्षेत्रों में बोली जाती हैं

हो :-यह हो जनजाति की भाषा का नाम है इस भाषा की अपनी शब्दावली एवं उच्चारण पद्धति है। अपने में ही सीमित रहने के कारण इस भाषा का विकास अधिक नहीं हो सका है 

खगड़िया :- खगड़िया जनजाति की भाषा का नाम खड़िया ही है

2) द्रविड़ (द्रविड़ियन) भाषा परिवार

इस भाषा परिवार में मुख्यतः कुड़ुख (उरांव ) ,मालतो (सौरिया , पहाड़िया, व माल पहाड़िया) आदि शामिल है 

➤द्रविड़ भाषा परिवार की कुड़ुख बोली उरांव जनजाति के लोगों में प्रचलित है इस भाषा ने बड़ी उदारता से अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण किया है

कुड़ुख भाषा का ही  एक अन्य रूप मालतो है

➤मालतो को सौरिया  पहाड़ियां,गोंडी  तथा माल पहाड़िया आदि जनजातियां बोलचाल के रूप में प्रयोग करती हैं 

3) इंडो-आर्यन भाषा परिवार

हिंदी, खोरठा, नागपुरी,कुड़माली, पंचपरगनिया,आदि इस भाषा परिवार में आती है। इसे सदानी भाषा भी कहते हैं

हिंदी :- झारखंड की सर्वप्रमुख भाषा हिंदी है इससे झारखंड की राजभाषा होने का गौरव प्राप्त है यहां हिंदी बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है

खोरठा :- इसका  संबंध प्राचीनी खरोष्ठी लिपि से जोड़ा जाता है यह मागधी  प्राकृत से विकसित एक भाषा है 

➤यह हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद, रांची जिले के उत्तरी भाग, संथाल परगना, एवं पलामू के उत्तर -पूर्वी भागों में बोली जाती है

इस भाषा के अंतर्गत रंगड़िया ,देसवाली, खटाही, खटाई,खोटहि और गोलवारी बोलियां आती है

पंचपरगनिया:- पंचपरगना क्षेत्र जिसके अन्तर्गत तमाड़ ,बुंडू ,राहे ,सोनाहातु और सिल्ली क्षेत्र आते हैं में प्रचलित भाषा पंच परगनिया कहलाती है 

कुड़माली :- मूल रूप से कुर्मी जाति की भाषा होने के कारण इसका नाम कुड़माली पड़ा 

यह रांची, हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद, सिंहभूम एवं संथाल परगना में बोली जाती है 

नागपुरी :- यह भी मागधी  प्राकृत  से विकसित एक भाषा है संपर्क भाषा के रूप में पूरे झारखंड में यह प्रचलित है 

इसे नागवंशी राजाओं की मातृभाषा होने का गौरव प्राप्त है इसे सादरी /गवारी  के नाम से भी जाना जाता है

इन भाषाओं के अतिरिक्त झारखंड में भोजपुरी, मैथिली,मगही ,अंगिका ,बांग्ला, उर्दू, उड़िया, जिप्सी,   आदि भाषाएं बोली जाती हैं 

➤राज्य के राँची तथा पलामू क्षेत्र के साथ ही अन्य क्षेत्रों में भोजपुरी में बात-चीत करने वाले झारखंड- वासियों तथा बिहारियों की एक बड़ी संख्या विद्यमान है

झारखंड राज्य में प्रचलित भोजपुरी को दो वर्गों में विभाजित किया गया है

1)आदर्श भोजपुरी :- यह मुख्यत: पलामू के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित है 

2) नागपुरिया, सादरी एवं सदानी, भोजपुरी :- इसका व्यवहार छोटानागपुर के गैर आदिवासी क्षेत्रों में होता है 

झारखंड राज्य के हजारीबाग, चतरा, कोडरमा, पूर्वी पलामू, रांची एवं सिंहभूम  में बोल-चाल की भाषा के रूप में मगही का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है

भाषा विज्ञानी डॉ जॉर्ज ग्रियर्सन ने मगही बोली को दो श्रेणी में विभक्त किया है

1)आदर्श मगही :- यह मुख्य रूप से हजारीबाग एवं पूर्वी पलामू में बोली जाती है 

2) पूर्वी मगही :- यह रांची, हजारीबाग आदि क्षेत्रों में बोली जाती है 

रांची के कुछ क्षेत्रों में बोली जाने वाली पूर्वी मगही के रूप को पचपरगनिया भी कहा जाता है

अंगिका प्राचीन मैथिली का वर्तमान स्वरूप समझी जाने वाली भाषा है

यह मुख्यत: गोड्डा, दुमका, साहिबगंज, देवघर आदि क्षेत्रों में प्रचलित है छठी शताब्दी के ग्रंथ ललित विस्तार की रचना इसी भाषा में की गई थी

जिप्सी झारखंड में छिट-पुट बोली जाने वाली बोली है या नट, मलाट तथा गुलगुलिया जातियों की संपर्क बोली है

उर्दू को झारखंड के द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया गया है

बांग्ला झारखंड राज्य की तीसरी जाने वाली भाषा हैउत्तरी 

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