झारखंड में भूमि प्रदूषण के कारण और प्रभाव
➧ भूमि प्रदूषण से अभिप्राय जमीन पर जहरीले, अवांछित एवं अनुपयोगी पदार्थों की भूमि में विसर्जित करने से है, क्योंकि इससे भूमि का निम्नीकरण होता है तथा मिट्टी की गुणवत्ता प्रभावित होती है लोगों की भूमि के प्रति बढ़ती लापरवाही के कारण भूमि प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है।
➧ भूमि प्रदूषण के कारण
(i) कृषि में उर्वरकों, रसायनों तथा कीटनाशकों का अधिक प्रयोग ।
(ii) औद्योगिक इकाइयों, खानों तथा खदानों द्वारा निकले ठोस कचरे का विसर्जन।
(iii) भवनों, सड़कों आदि के निर्माण में ठोस कचरे का विसर्जन।
(iv) कागज तथा चीनी मिलों से निकलने वाले पदार्थों का निपटान, जो मिट्टी द्वारा अवशोषित नहीं हो पाते।
(v) प्लास्टिक की थैलियों का अधिक उपयोग, जो जमीन में दबकर नहीं गलती।
(vi) घरों, होटलों और औद्योगिक इकाइयों द्वारा निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों का निपटान, जिसमेँ प्लास्टिक, कपड़े, लकड़ी, धातु, काँच, सेरामिक, सीमेंट आदि सम्मिलित है।
➧ भूमि प्रदूषण के प्रभाव
(i) कृषि योग्य भूमि की कमी
(ii) भोज्य पदार्थों के स्रोतों को दूषित करने के कारण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक
(iii) भू-संख्लन से होने वाली हानियां
(iv) जल प्रदूषण तथा वायु प्रदूषण में वृद्धि
➧ झारखंड में भूमि प्रदूषण के प्रभाव
➧ झारखंड प्रदेश में लगभग 10 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि का अम्लीय भूमि (पी.एच. 5.5 से कम) के अंतर्गत आती हैं ।
➧ यदि विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्र में पड़ने वाले जिलों में अम्लीय भूमि की स्थिति को देखें तो उत्तरी-पूर्वी जोन (जोन-IV) के अंतर्गत जामताड़ा, धनबाद, बोकारो, गिरिडीह, हजारीबाग और रांची के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 50% से अधिक भूमि अम्लीय समस्या से ग्रसित है ।
➧ इसी तरह पश्चिमी पठारी जोन (जोन -V) में सिमडेगा, गुमला और लोहरदगा में 69 से 72% तक अम्लीय भूमि की समस्या है, जबकि पलामू, गढ़वा और लातेहार में अम्लीय भूमि का क्षेत्रफल 16% से कम है, दक्षिणी-पूर्वी जोन (जोन -VI) में अम्लीय भूमि की समस्या सबसे ज्यादा है।
➧ इस क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले तीनों जिलों-सरायकेला, पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूम में अम्लीय भूमि का क्षेत्रफल 70% के करीब है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि झारखंड प्रदेश में मृदा अम्लीयता प्रमुख समस्याएं है।
➧ अम्लीय भूमि की समस्या का प्रभाव
➧ गेहूं , मक्का, दलहन एवं तिलहन फसलों की उपज संतोषप्रद नहीं हो पाती है।
➧ मृदा अम्लीयता के कारण एलयूमिनियम, मैगनीज और लोहा अधिक घुलनशील हो जाते हैं और पौधों को अधिक मात्रा में उपलब्ध होने के कारण उत्पादन पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
➧ अम्लीय भूमि में मुख्यत: फास्फेट, सल्फर, कैल्शियम एवं बोरॉन की कमी होती है।
➧ अम्लीय भूमि में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण और कार्बनिक पदार्थों का विघटन नहीं होता है। इसके अलावा सूक्ष्म जीवों की संख्या एवं कार्यकुशलता में कमी आ जाती है।
➧ झारखंड में पोषक तत्वों का वितरण और विवरण
➧ झारखंड में मुख्य पोषक तत्वों में फास्फोरस एवं सल्फर की कमी पाई जाती है। कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 66 % भाग में फास्फोरस एवं 38% भाग में सल्फर की कमी पाई गई है।
➧ पोटेशियम की स्थिति कुल भौगोलिक क्षेत्र के 51 प्रतिशत भाग में निम्न से मध्य है।
➧ नाइट्रोजन की स्तिथि 70% भाग में निम्न से मध्यम पाई जाती है, जबकि कार्बन 47% भाग में मध्यम स्थिति में पाई जाती है।
➧ फास्फोरस की कमी होने के नुकसान
(i) फास्फोरस की कमी दलहनी और तिलहनी फसलों की उपज को प्रभावित करती है।
(ii) फसल विलंब से पकते हैं और बीजों या फलों के विकास में कमी आती है।
➧ उपाय
(i) जहां फास्फोरस की कमी हो, मिट्टी जांच प्रतिवेदन के आधार पर सिंगल सुपर फास्फेट (SPP) या डी. ए. पी. का प्रयोग करना चाहिए।
(ii) लाल एवं लैटीरिटिक मिट्टीयों में जिसका पी.एच.(PH) मान 5.5 से कम हो, रॉक फास्फेट का उपयोग काफी लाभदायक होता है।
➧ सल्फर की कमी से होने वाले नुकसान
(i) कीट-व्याधि का प्रभाव बढ़ता है, जिससे फसलों की उत्पादकता घटती है। इतना ही नहीं फसल पूरी तरह से बर्बाद हो जाते है।
➧ उपाय
(i) जिन जिलों में सल्फर की कमी ज्यादा पाई गई है, वहां एल. एस. पी. का प्रयोग कर इसकी कमी को पूरा किया जा सकता है।
(ii) इसके अलावा फास्फोरस, जिप्सम का प्रयोग भी सल्फर की कमी को दूर करने में लाभदायक है। क्योंकि दलहनी एवं तिलहनी फसलों में सल्फर युक्त खाद का प्रयोग लाभदायी होता है।
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