Sunday, November 8, 2020
मांझी परगना /संथाल शासन व्यवस्था (Manjhi Pargana/santhal shasan vyavastha)
मुंडा उलगुलान /बिरसा मुंडा आंदोलन (Munda Ungulan/Birsa Munda Andolan)
Munda Ungulan/Birsa Munda Andolan
(मुंडा उलगुलान /बिरसा मुंडा आंदोलन)
➤बिरसा आंदोलन 19वीं सदी के आदिवासी आंदोलनों में सबसे अधिक संगठित और व्यापक आंदोलन में से एक था, जो वर्तमान झारखंड राज्य के रांची जिले के दक्षिणी भाग में 1899-1900 ईसवी में हुआ।
➤इसे 'मुण्डा उलगुलान ' मुण्डा महाविद्रोह भी कहा जाता है।
➤सामूहिक भू -स्वामित्व व्यवस्था का जमींदारी या व्यक्तिगत भू-स्वामित्व व्यवस्था में परिवर्तन के विरुद्ध इस आंदोलन का उदय हुआ और बाद में बिरसा के धार्मिक-राजनीतिक आंदोलन के रूप में इसका चरमोत्कर्ष हुआ।
➤कारण
➤मुण्डा उलगुलान के निम्नलिखित कारण थे।
1) खूंटकट्टी व्यवस्था की समाप्ति और बैठ बेगारी का प्रचलन :- 19वीं सदी में उत्तरी मैदान से आने वाले व्यापारियों, जमींदारों, ठेकेदारों, साहूकारों ने मुंडा जनजाति में प्रचलित सामूहिक भू -स्वामित्व वाली भूमि व्यवस्था (खूंटकट्टी व्यवस्था) को समाप्त कर व्यक्तिगत भू -स्वामित्व वाली भूमि व्यवस्था का प्रचलन किया।
➤बंधुआ मजदूरी (बेठ बेगारी) के माध्यम से (देकु )गैर आदिवासियों/बाहरी लोग का शोषण करते थे।
2) मिशनरियों का कोरा आश्वासन और उनसे मोह -भंग :- विभिन्न मिशनरियों ने भूमि संबंधी समस्याओं के समाधान दूर करने का लालच देकर उन्हें अपने धर्म-ईसाई धर्म में दीक्षित करना प्रारंभ कर दिया।
➤किंतु वे भूमि की मूल समस्या का कोई समाधान नहीं कर पाए।
3) अदालतों से निराशा :- जब मुंडा कबीले के सरदारों ने बाहरी भूस्वामियों और जबरी बेगारी के खिलाफ अदालतों की शरण ली तो वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी।
➤तत्कालीन कारण
4) 1894 का छोटानागपुर वन सुरक्षा कानून :-1894 का छोटानागपुर वन सुरक्षा कानून बन जाने से जंगल पुत्र आदिवासी निर्वाह के सबसे प्रमुख साधन से वंचित हो गए।
➤उन्हें भूखों मरने की नौबत आ गई।
➤भूख से बिलबिलाते मुंडाओ को आंदोलन करने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा।
➤बिरसा आंदोलन का उद्देश्य
➤आर्थिक उद्देश्य :- सभी बाहरी तथा विदेशी तत्वों को बाहर निकालना विशेषकर मुंडाओ की उनकी जमीन हथियाने वाले जमींदारों को भगाना एवं जमीन को मुंडा उनके हाथ में वापस लाना।
➤राजनीतिक उद्देश्य :- अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभुत्व को समाप्त करना तथा स्वतंत्र मुंडा राज की स्थापना करना।
➤धार्मिक उद्देश्य :- ईसाई धर्म का विरोध करना तथा ईसाई बन गए असंतुष्ट मुंडाओ को अपने धर्म में वापस लाना।
➤परिणाम
➤बिरसा आंदोलन स्वतंत्र मुंडा राज की स्थापना करने में विफल रहा, लेकिन 1902 में गुमला एवं 1903 में खूटी को अनुमंडल के रूप में स्थापना तथा 1908 के छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम के द्वारा मुण्डाओं को कुछ आराम अवश्य मिली।
➤वर्ष 1908 में पारित छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम के के द्वारा (सामूहिक काश्तकारी) अधिकारों को पुनर्स्थापित किया गया, बंधुआ मजदूर (बेठ बेगारी) पर प्रतिबंध लगाया गया तथा लगान की दरें कम की गई।
➤फ़ादर हाफमैन ने 1908 के छोटानागपुर काश्तकारी को मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए किया गया बहुत ही बहुमूल्य प्रयास बताया।
➤बिरसा मुंडा एक राष्ट्रवादी था।
➤परंतु इस आंदोलन को आदिम पर साम्राज्य विरोधी करने से इनकार किया जा सकता।
➤मुण्डा समाज आज भी उन्हे 'बिरसा भगवान', 'धरती आबा', धरती पिता) 'विश्वपिता का अवतार' आदि के रूप में याद करता है उसके गांव चालकंद को तीर्थ स्थल का दर्जा देता है।
➤मुंडा समाज के बीच बिरसा के नाम से एक पंथ -बिरसाई पंथ चल निकला।
➤बिरसा पवित्र स्मृति मुण्डाओं के हृदय में बनी हुई है।बिरसा की वीरता व बलिदान की गाथा अनेक लोक कथाओ व लोक गीतों में अमर बन चुकी है।
➤वह आज भी आदिवासियों में नये युग का प्रेरणा पुंज है।
➤वैसा आंदोलन से मुंडा राज का सपना भले ही पूरा नहीं हो सका, लेकिन विद्रोह की आग अंदर ही अंदर सुलगती रही , यही विद्रोह की आग पृथक झारखंड राज्य की प्रेरणा बन गई।
झारखंड के प्रमुख वाद्य यंत्र (Jharkhand Ke Pramukh Vadya Yantra)
झारखंड के प्रमुख वाद्य यंत्र
(Jharkhand Ke Pramukh Vadya Yantra)
1) तंतु वाद्य
2) सुषिर वाद्य
3) ताल वाद्य
1) तंतु वाद्य :-
यह वैसे वाद्य होते हैं, जिनके तारों में कंपन के माध्यम से संगीतमय ध्वनि उत्पन्न की जाती है। जैसे :- एकतारा, भुआंग,केंद्ररी आदि।
➤एकतारा :- इसमें एक तार होने के कारण इसे एकतारा कहा जाता है।
➤इस वाद्य का निचला हिस्सा खोखली लौकी या लकड़ी का बना होता है।
➤यह देश भर के अपनी धुन में मस्त साधुओं और फकीरों की पहचान का वाद्य यंत्र है।
➤झारखंड में भी अक्सर फकीर/साधुओ के पास देखा जा सकता है।
➤केन्द्री :- यह संथालों का प्रिय वाद्य है।
➤इसे झारखंडी वायलिन भी कहा जाता है।
➤इसका निचला हिस्सा कछुए की खाल या नारियल के खाल का बना होता है।
➤इसमें 3 तार होते हैं जिनसे मधुर ध्वनि निकलती है।
➤भुआंग:- यह संथालों का प्रिय वाद्य है।
➤दशहरा के समय दासोई नाच में संथाल भुआंग बजाते हुए नृत्य करते हैं।
➤इसमें तार को ऊपर खींच कर छोड़ने से धनुष टंकार जैसी आवाज निकलती है।
➤टूइला :- इसकी वादन शैली कठिन होने के कारण झारखंड में यह कम लोकप्रिय है।
2) सुषिर वाद्य :-
ये वैसे वाद्य होते हैं जिसमें पतली नलिका में फूंक मारकर संगीत में ध्वनि उत्पन्न की जाती है। जैसे :- बांसुरी,सनाई(शहनाई), मदनभेरी, शंख, सिंगा आदि।
➤बांसुरी :- यह झारखंड का सबसे अधिक लोकप्रिय सुषिर वाद्य है। डोंगी बांस से सबसे अच्छी बांसुरी बनाई जाती है।
➤सानाई :- झारखंड के लोक संगीत में सानाई (शहनाई) बांसुरी की तरह लोकप्रिय है।
यह यहां का मंगल वाद्य भी है ,जिससे पूजा, विवाह आदि के साथ-साथ छउ,पाइका आदि नृत्यों में भी बजाया जाता है।
➤सिंगा :- प्राय: बैल या भैंस के सींग से बनाए जाने के कारण सिंगा कहा जाता है।
➤छऊ नृत्य में और शिकार के वक्त पशुओं को खदेड़ने के लिए बजाया जाता है।
➤मदनभेरी :- इस सुषिर वाद्य में लकड़ी की एक सीधा मिली होती है, जिसके आगे पीतल का मुह रहता है।
➤इसे ढोल, बांसुरी,सानाई के साथ सहायक के रूप में बजाया जाता है।
3) ताल वाद्य :-
➤ताल वाद्य दो प्रकार के होते हैं
I)अवनद्ध वाद्य:-
II)धन वाद्य:-
Saturday, October 31, 2020
झारखण्ड के प्रमुख लोक नाट्य(Jharkhand Ke Pramukh Lok Natya)
झारखण्ड के प्रमुख लोक नाट्य
(Jharkhand Pramukh Lok Natya)
➤झारखंड राज्य में प्रचलित लोक नाट्य है
➤जट-जटिन
➤भकुली बंका
➤किर तनिया
➤डोमकच
Tuesday, October 27, 2020
भूमिज विद्रोह 1832-33 (Bhumij Vidroh-1832-33)
भूमिज विद्रोह 1832-33 (Bhumij Vidroh-1833-33)
Monday, October 26, 2020
झारखण्ड का धरातलीय स्वरुप ( Jharkhand ka dharataliya swaroop)
Jharkhand Ka Dharataliya Swaroop
➤झारखंड के धरातलीय स्वरूप को मुख्य रूप से चार भागों में बांटा जाता है
1-पाट क्षेत्र
2-रांची पठार
3-हजारीबाग पठार
4 -निचली नदी घाटी एवं मैदानी क्षेत्र
Sunday, October 25, 2020
झारखंड ऊर्जा नीति 2011 (Jharkhand Urja Niti 2011)
झारखंड ऊर्जा नीति 2011(Jharkhand Urja Niti 2011)
➤राज्य के आर्थिक एवं संपूर्ण विकास के लिए ऊर्जा एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
➤कृषि, औद्योगिक और व्यवसायिक क्षेत्रों में विकास के लिए उर्जा को सार्वभौमिक रूप से एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में स्वीकार किया गया है।
➤बिना ऊर्जा के कोई भी बड़ा आर्थिक विकास संभव नहीं है।
➤वर्तमान समय में ऊर्जा की अपर्याप्त उपलब्धता राज्य के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।
➤ऊर्जा की मांग प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है।
➤झारखंड में प्रति व्यक्ति ऊर्जा की औसत खपत 552 यूनिट है, जिसकी आपूर्ति डी0 वी0 सी0 ,जुस्को एंड सेल से होती है।
➤राष्ट्रीय औसत 720 यूनिट प्रति व्यक्ति से कम है।
➤झारखंड राज्य विद्युत बोर्ड और तेनुघाट विद्युत निगम लिमिटेड की स्थापित क्षमता 1390 MW जिसमे की 1260 MW ताप और 130 MW जल विद्युत् है।
➤झारखंड औद्यौगिक नीति का मुख्य उद्देश्य राज्य के विकास को गति प्रदान करना है, ताकि झारखंड अन्य राज्यों के समक्ष खड़ा हो सके।
➤यह झारखंड राज्य का सौभाग्य है कि यहां पर ताप आधारित ऊर्जा उत्पादन की संभावना काफी अधिक है।
➤प्रचुर मात्रा में कोल उपलब्ध होने के कारण झारखंड राज्य पावर हब बन सकता है।
➤जहां से दूसरे राज्य को भी विद्युत का निर्यात किया जा सकता है।
झारखंड ऊर्जा नीति का मुख्य उद्देश्य
➤झारखंड ऊर्जा नीति का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की पूर्ति करना और विश्वसनीय गुणवत्तायुक्त, फिकायती शिकायती दर पर ऊर्जा की उपलब्धता को सुनिश्चित करना है।
➤झारखंड ऊर्जा नीति 2011 के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य है।
➤सभी घरों में 2014 तक विद्युत की आपूर्ति को सुनिश्चित करना।
➤ऊर्जा की कमी को पूरा करना।
➤उपभोक्ता के हितों की रक्षा करना।
➤विश्वसनीय एवं गुणवत्तायुक्त ऊर्जा की आपूर्ति उचित दर पर करना।
➤प्रति व्यक्ति विद्युत की उपलब्धता को 2017 तक 1000 यूनिट से अधिक करना।
➤बिजली के ट्रांसमिशन और वितरण क्षमता को दुरुस्त करना, ताकि विद्युत की आपूर्ति, क्षमता, गुणवत्ता को बढ़ाया और घाटे को कम किया जा सके।
➤पर्यावरण के अनुकूल उत्पादन क्षमता को बढ़ाना।
➤वर्तमान विद्युत उत्पादक संयत्रों का नवीनीकरण करके उनके उत्पादक क्षमता को बढ़ाना।
➤राज्य के सभी गांव एवं घरों का शीघ्र विद्युतीकरण कर उर्जा की आपूर्ति को सुनिश्चित करना।
➤झारखंड स्टेट इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमिशन को और अधिक मजबूत करना और उसके प्रशासनिक व्यवस्था को पारदर्शी बनाना।
➤विद्युत् ऊर्जा का सक्षम तरीके से उपयोग एवं उसके संरक्षण को सुनिश्चित करना।
➤ऐसी संभावना है कि झारखंड ऊर्जा नीति 2011 राज्य के विद्युत समस्या को दूर करने में सक्षम साबित होगा।